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________________ ३५. उत्तम मार्दव २. आत्म-सम्बोधन (६) "मेरा बड़ा ऐश्वर्य है । २००० हाथी, ४००० घोड़े, १००० रथ, इतनी तोपें, बन्दूकें, हवाई जहाज़, टैंक, लाखों सेवक, मोटरें, कारखाने और न जाने क्या-क्या अला बला । मेरी आज्ञा सारे देश पर चलती है, मेरी आज्ञा के विरुद्ध कार्य करने का किसी में साहस नहीं। चारों ओर सेवक और सेविकाओं से सेवित इस राज्य-वैभव को भोगते हुए आज मेरे से इन्द्र भी शर्मा रहा है । " किस ऐश्वर्य को कहा जा रहा है प्रभो ! उसी को, जो एक बम पड़ जाने पर न जाने कहाँ चला जायेगा ? उसको जिसके लिए कि सम्भवतः रात को तुझे नींद भी नहीं आती ? किसने भ्रमा दिया है तुझे ? इतना भोला तो न बन कि चाहे जो ठगकर ले जाय, आंखों में डाले एक मुट्ठी मिर्च और सर्वस्व हर कर ले जाए ? अपने चित्प्रकाश को भूलने के कारण आज तेरी आँखें चुँधिया गई हैं इसकी झूठी आभा में । इधर देख आनन्द-नगर के अपने आधिपत्य को, जहाँ शान्ति तेरी दासी है, ज्ञान तेरा मन्त्री है, अनन्तबल तेरी सेना है, और सुख तेरा पुरोहित है । अभिमान करना है तो इसके प्रति कर, जितना चाहे कर । २४४ (७) “मैं बड़ा तपस्वी हूँ । ज्येष्ठ की दोपहर में धूप के अन्दर पत्थर की तपती शिला पर घण्टों बैठा रहता हूँ, पोष-माघ की कड़कड़ाती ठण्डी रातों में श्मशान भूमि में योग-साधता हूँ, महीनों महीनों का उपवास, नीरस भोजन तथा अनेकों कठिन से कठिन तप करता हूँ, अनेकों परीषह सहता हूँ।” कैसा तप ? शरीर को तपाने का ? अरे रे ! प्रतीत होता है कि लोक के सन्ताप से सन्तप्त तेरा अन्तष्करण ही मानो भाप बनकर उड़ गया है। अपने को न तपाकर दूसरे को तपाने में कौन महिमा है ? भट्टी के सामने बैठा लुहार सारा दिन तपा करता है। क्या अन्तर है उसके तपने में तथा तेरे तपने में ? क्या भूल गया पूर्वोक्त सकल विवेक ? निज स्वरूप में प्रतपन करने का नाम तप है। उसमें ताप उत्पन्न , उसमें स्थिरता धार, शान्ति के सम्भोग में दृष्टि लगा, उसके प्रति महिमा जगा, उसके गुणगान गा, तब हो सकेगा तेरा माहात्म्य । अब काहे का माहात्म्य ? “मैं बड़ा ऋद्विधारी हूँ, मुझमें बड़ी-बड़ी शक्तियाँ हैं, चाहूँ तो एक दृष्टि से तुझको भस्म कर दूँ, शाप देकर राव से रंक कर दूं, आशीर्वाद देकरें कृतकृत्य कर दूँ, आकाश में उड़ जाऊँ, मकड़ी के जाले पर से पाँव रख कर गुजर जाऊँ, बैठे-बैठे सुमेरु को स्पर्श कर दूं, मक्खी जैसा शरीर बना लूँ । कहाँ तक बखान करूँ अपनी महिमा का, अपने चमत्कारों का ?” अपने मुँह अपनी प्रशंसा करते क्या लाज नहीं आ रही है तुझे ? महिमा गान करने से पहले इतना समझ लेता कि किसकी महिमा का गान है यह, तेरी या इस चमड़े की ? चमड़े की महिमा से महिमावन्त कैसे कहला सकेगा तू ? इससे तो कुछ शिक्षा ले । यह आज लज्जित करने आया है तुझे अपने चमत्कार दिखाकर, कि देख योगी तेरे योग मैं फीका किये देता हूँ। देख मेरी महिमा । क्या है तेरे पास जो इसके सामने रखे ? बता तो सही क्या उत्तर देगा कि क्या है तेरे पास ? बस पड़ गया सोच में ? अरे विश्व के अधिपति ! अपनी महिमा को भूलकर इसकी महिमा के चमत्कार दिखाने लगा ? फिर कैसे जानें कि तेरे पास क्या है ? इधर देख, तेरे पास वह कुछ है जिसके सामने इन बेचारी तुच्छ शक्तियों व ऋद्धियों की तो बात नहीं, तीर्थंकर पद भी तुच्छ है । देख उस शान्ति की ओर जिसमें पड़ी है अतीव तृप्ति, सन्तोष व साम्यता, जिसके वेदन के सामने अन्य सब कुछ तुच्छ है । इस शान्ति का अधिपति होकर अब इन तुच्छ शक्तियों की महिमा का बखान छोड़। इस शान्ति पर गर्व कर जितना चाहे कर । (८) “मैं बड़ा ज्ञानी हूँ, बड़े-बड़े तार्किकों को शास्त्रार्थ में परास्त कर दूं । मेरे तर्कों का उत्तर देने में कौन समर्थ है ? बड़े-बड़े शास्त्र मेरे हृदय में रखे हैं, जो बात कहो निकाल दूँ। अमुक आचार्य ने अमुक शास्त्र में, अमुक बात, अमुक पृष्ठ पर लिखी है, देख लो खोलकर । बड़े-बड़े पण्डित मेरा लोहा मानते हैं। दो-दो घण्टे धारावाही बोल सकता हूँ । तर्क, अलंकार, व्याकरण, ज्योतिष, सिद्धान्त, अध्यात्म और सर्वोपरि करणानुयोग की सूक्ष्म-कथनी मेरे लिए बच्चों का खेल है ?” किस ज्ञान पर अभिमान करता है चेतन ! अपने अतुल ज्ञान प्रकाश को देख जिसमें तीन लोक युगपत् प्रत्यक्ष भासते हैं । इन मात्र दो चार शब्दों के तुच्छ ज्ञान का क्या मूल्य है तेरे अतुल प्रकाश के सामने ? यदि शान्ति प्रति बहुमान जागृत न हुआ तो यह शास्त्र- ज्ञान काम भी क्या आयेगा ? केवल गधे पर पुस्तकों के भार जैसा है । यह तो देख कि इन शब्दों को याद करने के लिए तुझे कितना परिश्रम करना पड़ रहा है ? हर समय की चिन्ता, कहीं भूल गया तो सर्व विद्वत्ता मिट्टी में मिल जायेगी। उस शाश्वत चैतन्य - विलास को क्यों नहीं देखता, जिसमें सहज ही सर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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