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३५. उत्तम-मार्दव
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२. आत्म-सम्बोधन अधिपति है, सर्व विभावों का विनाश करने की शक्ति रखने वाला तू स्वयं यम है, इन अल्पमात्र मनुष्यों द्वारा ही नहीं त्रिलोक द्वारा वन्द्य है। अपनी महिमा के प्रति गर्व कर, कठोरता छोड़, उसका और अधिक अपमान मत कर, स्वयं अपना सम्मान करना सीख, तब बनेगा वास्तव में उच्चकुलीन।
(२) “मेरी जाति बहुत ऊँची है, मेरे मामा की आज्ञा अनेकों देश स्वीकार कर रहे हैं, मेरे नाना इतने दानी थे, मेरी माता बड़ी विदुषी है।" अरे ! क्या हुआ यदि तेरी माता, तेरे मामा और नाना बड़े थे ? तुझे इनसे क्या ? तू तो यह देख कि तू कौन है ? उन्होंने बड़े कार्य किए तो वे बड़े कहलाये, तू बड़ा कार्य करेगा तो तू बड़ा कहलाएगा। नीच काम करने से कौन ऊँचा बनता है। अपने प्रभुत्व को ठुकरा कर नाना मामा से अपने प्रभुत्व की भिक्षा मांगने वाले भी चेतन ! तनिक विचार तो कर, कि तू महान है कि भिखारी ? भगवती सरस्वती जिसकी माता हो, वह तुच्छ बुद्धि वाले प्राणियों को अपनी माता बनाए, आश्चर्य है। सहज आनन्द जिसका मामा हो वह चिन्ता की चिताओं में जलने वाले इन मनुष्यों को मामा समझे, खेद है । भगवन् ! आँख खोल, अपनी ज्ञान-चेतनावली जाति को पहिचान, उसके प्रति बहुमान उत्पन्न कर, कठोरता छोड़। चेतन-जाति पर गर्व कर, जितना चाहे कर ।
(३) “मैं बड़ा रूपवान हैं। गली में मझे जाता देखकर स्त्रियाँ अपना सर्व काम छोड बरामदों में आकर खडी हो जाती हैं राह चलने वाले पथिक रुक जाते हैं।" अरे रे ! कौन से रूप की बात करता है? इस चमडे के रूप की बात? तब तो अवश्य ही त बडा रूपवान है। ले एक बार इस दर्पण में मुँह देख ले, इसमें १० साल आगे का रूप दिखाई दे जायेगा तुझे। देख कितना सुन्दर है यह? क्यों डर क्यों गया ? तेरा ही तो रूप है जिस पर गर्व करता था तू ? जरा मक्खी के पंख समान पतली सी इस झिल्ली को उतार कर देख इसका रूप । क्यों कैसा लगता है ? जरा शौच-गृह में जाकर देख इसका रूप, कैसा मनभाता है ? भोले प्राणी ! अपने सच्चिदानन्द रूप को भूलकर इस चमड़े पर लुभाते क्या लज्जा नहीं आती? आ यदि अपना सौन्दर्य देखना है तो देख यहाँ, जहाँ विश्व-मोहिनी यह शान्ति सुन्दरी तेरे गले में वरमाला डालने को तैयार खड़ी है। इसका अपमान करके तू कैसे अपने को रूपवान कह सकेगा ? प्रभु ! अन्य ओर से दृष्टि हटा, कठोरता तज, इस सुन्दरी को मृदुता से स्पर्श कर यह है तेरा असली रूप । इस पर अभिमान कर, जितना चाहे कर।
(४) “ मैं बड़ा धनवान हूँ, बड़े-बड़े व्यापारी मेरे द्वार पर मस्तक रगड़ते हैं, सारी मण्डी का भाव मेरे हाथ में है। मेरे पास ५०० गाँव हैं, यह देखो करोड़ों के हीरे जवाहरात, खजाना भरा पड़ा है, कुबेर भी शर्माता है मुझसे ।" अरे रे ! किस पर गर्व करता है ? इस धूल पर जो कल ही न जाने कहाँ विलय हो जाने वाली है ? अपने वास्तविक चैतन्य धन को भूल कर इस धूल से अपने बड़प्पन की भिक्षा मांगते क्या लाज नहीं आती तुझे ? जाग चेतन ! जाग, इधर देख इस चैतन्य-कोष को जिसके एक कोने में सम्पूर्ण लोक समाया हुआ है, तीन लोक की सम्पूर्ण विभूति को एक समय में भोग लेने की शक्ति रखने वाले भो ज्ञानपुञ्ज ! इस अपने ज्ञान की महिमा को स्वीकार कर और धूल की महिमा की पकड़ को छोड़ । इसी का नाम है मृदुता या मार्दव-परिणाम । उस आन्तरिक स्वानुभव-ज्ञान के प्रति बहुमान उत्पन्न कर, चाहे जितना कर।
(५) “मैं बड़ा बलवान हूँ, बड़े-बड़े पराक्रमी वीर मेरा लोहा मानते हैं, मेरे एक इशारे पर आज विश्व कांप उठता है, किस की शक्ति है कि मुझको जीत सके ?" अरे ! हंसी आती है तेरी बात पर, पामर कहीं का । 'मेरी माता वन्ध्या
कौन न हंस पडेगा? आश्चर्य है कि इस तनिक से अभिमान के द्वारा जीता हआ त विश्व-विजयी होने का दावा करता है। अपने भीतर तो झांककर देख कि काल की विकराल दाढ़ में बैठा हुआ तू भले हंस रहा हो, पर कितनी देर के लिए? अभी जबड़ा बन्द हो जायेगा और तेरा यह अभिमान सर्व जगत पर स्वत: प्रकट होकर यह घोषणा करेगा कि कितना बली है तू । शर्म कर, काल की पहुँच से दूर अपने यथार्थ बल को भूलकर इस शरीर से मांगे हुए बल पर फूला फिरता है ? कहाँ गई तेरी बुद्धि ? इधर देख अपने अनन्तबल की ओर, जिस और आन्तरिक-शान्ति में तन्मयता पड़ी है, निज आनन्द का आधिपत्य पड़ा है और जहाँ लोक की सर्व विपदायें व चिन्तायें खड़ी रो रही हैं, एक बार प्रकट हो जाने पर जिसमें कभी कमी नहीं आती। उसकी महिमा जागृत कर, जिससे कि यथार्थ बली बन जाय तू । उस पर अभिमान कर, जितना चाहे कर ।
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