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३५. उत्तम-मार्दव
१. अभिमान, २. आत्म सम्बोधन, ३. लोकेषणा दमन ।
शान्ति-सरोवर भगवान आत्मा ! आज अत्यन्त सौभाग्यवश शान्ति-सागर- वीतरागी गुरुओं की शरण को प्राप्त होकर भी यदि कषायोद्रेक में जलता रहा, तो कोई लाभ न होगा इस महान व दुर्लभ अवसर से, अतः अब जिस किस प्रकार भी अन्तर- दाहोत्पादक इन कषायों से युद्ध कर, उत्तम मार्दव से आक्रमण कर । घबरा नहीं, इस हथियार का सामना करने की शक्ति इन कषायों में नहीं है। इसकी एक झलक मात्र से यह गीदड़ - टोली दुम दबाकर भागती दिखाई देगी । यह हथियार तेरे पास न हो, ऐसा भी नहीं है । तेरी आयुध-शाला में ऐसे हथियारों की कमी नहीं ।
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१. अभिमान—–मार्दव अर्थात् मृदु-परिणाम, कोमल परिणाम, अभिमान के विरोधी परिणाम । आज तक पर-पदार्थों को अपना मानता हुआ कुल, जाति, रूप, धन, बल, ऐश्वर्य, तप, ज्ञान आदि की महिमा को गिनता हुआ, इनमें
रस लेता हुआ, इनके कारण 'अपनी महानता मानकर गर्व करता हुआ चला आ रहा है। झूठा है यह गर्व, जिसका कोई मूल्य नहीं, कोई आधार नहीं । इन पर-पदार्थों से अपनी महिमा व बड़प्पन की भिक्षा मांगने में ही गर्व करता आ रहा है । “इनका मैं स्वामी हूँ, इनका मैं करता हूँ, मेरे द्वारा ही इनका काम चल रहा है, ये सब मेरे लिए ही काम कर रहे हैं, ये सब मुझमें से ही अपना बल प्राप्त कर रहे हैं, यदि मैं न हूँ तो ये किसी काम के नहीं, मेरे आधार पर ही टिके हैं, इनको मैं भोगता हूँ, ये मेरा बड़ा काम साधते हैं, इनके द्वारा ही मेरी महिमा हो रही है, इनके लिए ही मैं इतना परिश्रम कर रहा हूँ इनमें से ही मुझे आनन्द मिलता है, इनके आधार पर ही मेरी सर्व महत्ता है, लोग मेरी इस विभूति को देखकर नतमस्तक हो जाते हैं, मेरी महिमा का बखान करते हैं।" इस प्रकार की झूठी कल्पनाओं के अन्धकार में आज तू अपनी वास्तविक महिमा को भूल बैठा है, अपनी विभूति को न गिनकर भिखारी बन बैठा है। अपने कुल को, जाति को, अपने रूप को, अपने धन को, अपने बल को, अपने ऐश्वर्य को, अपने तप को, अपने ज्ञान को तथा अन्य अनेकों बातों को बिल्कुल भुला बैठा है। अपनी इस महिमा की अवहेलना करके दूसरों की महिमा में अपनी महिमा मानना अनन्ता अभिमान है, अपनी महिमा के प्रति अत्यन्त कठोरता है। एक दृष्टि भी अन्तर की ओर जाए तो अपनी विभूति के दर्शन हो जायें, अपनी महिमा का भान हो जाए, उसके प्रति बहुमान प्रकट हो जाए, पर द्रव्यों का अभिमान हट जाए, निज का अभिमान हो जाए, अपनी पूर्ण महिमा का साम्राज्य प्राप्त हो जाए, और भिखारीपना जाता रहे ।
लोक में भी दो प्रकार के अभिमान कहने में आते हैं- एक स्वाभिमान और दूसरा सामान्य अभिमान अर्थात् पराभिमान । 'मैं उत्तम कुल का हूँ क्योंकि मेरा पिता बड़ा आदमी है इत्यादि' तो पराभिमान है, क्योंकि पिता और पर की महिमा में झूठा अपनत्व किया जा रहा है। परन्तु 'मेरा यह कर्तव्य नहीं, क्योंकि मेरा कुल ऊँचा है' यह है स्वाभिमान क्योंकि अपने कर्त्तव्य की महिमा का मूल्याङ्कन करने में आ रहा है। पराभिमान निन्दनीय और स्वाभिमान प्रशंसनीय गिनने में आता है । इसलिए वास्तविक अभिमान करना है, तो स्वाभिमान उत्पन्न कर अर्थात् निज चैतन्य विलास के प्रति महिमा उत्पन्न कर जितनी चाहे कर ।
२. आत्म-सम्बोधन – (१) “मेरा कुल बहुत ऊँचा है, मैं सूर्यवंशी हूँ, वह महान वंश जिसमें भगवान आदि-ब्रह्मा ऋषभदेव ने अवतार लिया, जिसमें षट्खण्ड-स्वामी भरत चक्रवर्ती उत्पन्न हुए, जिसमें यम-विजेता महान् तपस्वी बाहुबलि उत्पन्न हुए। आप सबको मेरा सम्मान करना उचित है क्योंकि मैं भगवान की सन्तान हूँ और आप सबसे ऊँचा हूँ ।" अरे रे ! क्यों अपने कुल के प्रति इतना कठोर हो गया है तू ? तनिक तो दया कर, बिल्कुल रंक बन गया है, भगवान की सन्तान होने का गर्व करता है पर भगवान होने का नहीं ? चिदानन्द- ब्रह्म, पूर्ण परमेश्वर, स्वयं भगवान होकर किसकी महिमा, किसकी उच्चता स्वीकार कराने चला है। साक्षात् भिखारी बनकर भगवान के कुल को लांछन लगाने वाले भो चेतन ! तू उच्च-कुलीन है कि नीच कुलीन ? स्वयं तू ऋषभ है, षट्खण्ड का ही नहीं त्रिलोक का
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