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________________ २४१ ३४. उत्तम-क्षमा ५. गृहस्थ को प्रेरणा जड़-पदार्थ अपने अनुकूल न बन सके तो कुछ-कुछ हृदय में सन्ताप-सा उत्पन्न होने लगता है। 'अरे ! मेरी आज्ञा से बाहर क्यों जा रहा है, जिस प्रकार मैं कहता हूँ उस प्रकार क्यों नहीं करता, अपनी मर्जी से क्यों करता है, इत्यादि । ऐसे पर वह योगी इस प्रकार विचारने लगता है कि “भो चेतन ! कहाँ खो आया है आज बद्धि? किस को अपने अनुकूल चलाना चाहता है, अपने को या इसको? इसको अपने आधीन करना तो तेरी सामर्थ्य से बाहर है। क्या पहले निर्णय नहीं कर चुका है (देखो ९.४) । विवेकी-ज्ञानी कहलाता है और फिर भी दूसरे को अपने अनुकूल करना चाहता है ? लोक में सर्व पदार्थ स्वतन्त्र हैं, तू उनको परतन्त्र बनाना चाहता है, अपने आधीन करना चाहता है ? तू भी स्वतन्त्र है, ये भी स्वतन्त्र हैं, जिस प्रकार चाहें करें, तू इन्हें रोकने वाला कौन, इन पर तेरा क्या अधिकार ? यदि अनुकूल ही परिणमाना है तो अपने को क्यों नहीं परिणमाता ? अपने ऊपर तो तेरा पूरा अधिकार है, क्यों अपनी शान्ति के प्रतिकूल इस क्रोध के आवेश में बहा जा रहा है ? रोक, रोक, बस अब इन परिणामों को रोक । इसके प्रति तो इतना ही कर्तव्य था कि इसके कल्याणार्थ कोई हित की बात इसे बता दे, सो तेरा कर्तव्य पूरा हुआ, अब यह चाहे जैसा करे इसकी मर्जी । लोक में अनन्तानन्त जीव राशि भरी पड़ी है, किस-किस को अपनी आज्ञा में चलायेगा।" ५. गृहस्थ को प्रेरणा–परम धैर्य के धारी अत्यन्त पराक्रमी उन योगियों को तो ऐसे विचार कभी-कभी कठिन अवसरों पर आते ही हैं, अत: उन्हें तो उत्कृष्ट क्षमा है ही, परन्तु यह क्षमा धारना उनका ही काम हो और आपका न हो ऐसा नहीं है । यथायोग्य अवसरों पर भले कुछ हीन रूप में सही, आपको भी इस अल्प गृहस्थ-अवस्था में, इसी प्रकार के विचारों द्वारा अपने क्रोध को दबाने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी से भी द्वेष करना शान्ति के उपासक का काम नहीं और यदि आज भी किसी बड़े या छोटे से द्वेष है, तो इस उत्तम-क्षमा की बात को सुनकर उसको उगलने का प्रयत्न करना चाहिये, उसके साथ युद्ध करना चाहिये। आपको अपना कर्तव्य देखना है, दूसरों का नहीं। अत: ‘वह तो बराबर मेरे साथ बुराई किये जा रहा है, मैं कैसे उसके प्रति माध्यस्थ हो जाऊँ, कैसे द्वेष त्याग दूं ?' इस प्रकार के विचारों को त्याग कर, अपने हित के लिए उपरोक्त क्षमा वर्द्धक परिणामोंके आश्रय पर, अपने शत्रु को भी आज तुम्हें क्षमा कर देना योग्य है । मत विचारिये कि वह आपको क्षति पहुँचायेगा, बल्कि यह विचारिये कि आपका अपना द्वेष या मात्सर्य ही आपको क्षति पहुँचा रहा है। प्रति वर्ष क्षमावणी का दिन मनाते हैं, क्षमा-क्षमा सब गहो रे भाई' का राग अलापते हैं, मानो दूसरों को सुनाते हैं। प्रभो ! स्वयं सुनने का प्रयत्न कीजिये, दूसरे को सुनाने का नहीं । दूसरा कुछ भी करे, उधर मत देखिये, किन्तु देखिये यह कि आप क्या करते हैं । शान्ति का मार्ग लौकिक दृष्टि से विपरीत है, उस दृष्टि में इसका रहस्य आ नहीं सकता। साधारण जन क्या जानें इसकी महिमा ? चित्त की शान्ति ही उत्तम क्षमा है । शान्त सरोवर में पड़े चन्द्रबिम्ब की भाँति इसी में तत्त्व प्रकाशित होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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