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३४. उत्तम-क्षमा
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४. अध्यात्म-सम्बोधन
कर
इसका विनाश तो हआ नहीं, तेरे संयम में तो बाधा पड़ी नहीं, तेरा मार्ग तो रुका नहीं ? जितने दिन भी यह है उतने दिन तक तो तू पुरुषार्थ कर ही सकता है । क्यों इतने मात्र से निराश सा हुआ जाता है ?" इत्यादि अनेक प्रकार के विचारों द्वारा क्रोध पर प्रतिबन्ध लगा देता है वह, उठने से पहले ही उसे दबा देता है वह । यह है योगी की उत्तम-क्षमा।
(३) और यदि कदाचित् ऐसा अवसर भी आ जाय कि कोई प्राण ही लेने को उद्यत हुआ हो, करोंत से चीरने को तैयार हो, बन्दूक ताने सामने खड़ा हो, अन्ध-कूप में धकेलने को तैयार हो, आधा जमीन में गाड़ कर दही छिड़क रहा हो शरीर पर उसे कुत्तों से नुचवाने के लिए, पकते हुए तेल के कढ़ाये में धकेलने को तैयार हो, कोल्हू में डाल दिया हो इस शरीर को, तो भी वह निर्भीक सिंहवत् विचारता है “अरे चेतन क्या हुआ है, क्या सोच रहा है, क्यों भयभीत-सा दिखाई देता है ? क्या इसलिए कि मृत्यु आने वाली है ? अरे तो आने दे, कौन बड़ी बात है, मृत्यु आना तो स्वभाव ही है ? और फिर इस जर्जरित शरीर को छीनकर एक नया शरीर प्रदान करने वाली ऐसी महा-माता से भय काहे का, इसमें अनिष्टता काहे की? यह तो तेरी उपकारिनी है जो नवीन शरीर प्रदान करके तुझे तेरी साधना में सहायता देने को उद्यत हुई है। कितना बड़ा उपकार कर रही है यह तेरा? यदि मृत्यु से ही डर लगता है तो अपनी वास्तविक मृत्यु से क्यों नहीं डरता, जो क्षण-क्षण-प्रति तुझे आ रही है ? एक विकल्प हटकर दूसरा, दुसरा हटकर तीस चौथा, क्षण-प्रतिक्षण जो तेरी शान्ति का घात कर रहे हैं । तेरा शरीर तो शान्ति है, यह चमड़ा नहीं। इसकी मृत्यु तेरी मृत्यु कैसे हो सकती है ? शान्ति की मृत्यु तो यह करने को समर्थ नहीं, वह तो तू स्वयं ही है । यदि तू क्रोध करे तो तेरी मृत्यु अवश्य हो जाए, पर वे बेचारे रंक तो क्रोध कराने को समर्थ नहीं, वह तो तू स्वयं ही है । तब ये तेरे घातक कैसे हो सकते हैं ? जो तुझे जानते ही नहीं वे बेचारे तेरा घात क्या करेंगे और तुझे जो अविनश्वर ज्ञानपुञ्ज जानते हैं वे तेरा घात क्या करेंगे? वे बेचारे अज्ञानी स्वयं नहीं जानते कि क्या करने जा रहे हैं वे । इन पर द्वेष कैसा? क्या बालकों की अज्ञान-क्रिया पर भी कभी किसी को द्वेष हुआ करता है ? ये भी तो बालक ही हैं जिन्होंने अभी आँख खोलकर देखा ही नहीं । कैसे जान सकते हैं कि वे स्वयं कौन हैं ?"
“और फिर यदि इन्हें यह कार्य करने से प्रसन्नता ही मिलती है तो इसमें तेरा क्या हर्ज है ? लोग तो बड़ा-बड़ा दान देकर, बड़ी-बड़ी सेवाएँ करके, बड़े-बड़े कष्ट झेलकर किसी को प्रसन्न करने का प्रयत्ल किया करते हैं और ये बिना कुछ किये सहज ही इस शरीर के साथ खेल-खेल कर प्रसन्न हो रहे हैं, तो इससे अच्छी बात क्या है ? तेरा सर्वस्व तो शान्ति है, उसे हरण करने को ये समर्थ नहीं और फिर भी प्रसन्न हुए जा रहा है, इससे इच्छी बात और क्या है ?" ।
क्या विचारता है, कि यह तेरा शत्रु है ? परन्तु भी चेतन ! कहाँ गई तेरी बुद्धि ? क्या हो गया है आज तुझे ? क्या नींद आ रही है ? अरे तुझे कोई बड़ा रोग हो जाए, तू सड़क के किनारे पड़ा हो और कोई अपरिचित पथिक तुझे अपनी मोटर में बैठाकर हस्पताल ले जाये डाक्टर से कहे कि डाक्टर साहब ! मेरा सर्वस्व ले लीजिये पर इसे अच्छा कर दीजिये। तो बता कि उस व्यक्ति से तुझे द्वेष होगा या प्रेम? बस कषायों से पीड़ित तू एक रोगी, यह दयालु-जीव नि:स्वार्थसेवी, अपना सर्व पुण्य लुटा कर तुझे इस रोग से मुक्ति दिलाने आया है, तेरा सर्व भार अपने सर लेने आया है। भला द्वेष का पात्र है या करुणा का ?”
(४) और भी, “यदि घर में तेरे पुत्र को बौरान हो जाए और पागलपन में तेरे कान काटने लगे तो उस पर तुझे दया आयेगी या क्रोध ? बस ये बेचारे बौरान से ग्रसित जीव स्वयं इस रोग से पीड़ित हैं, स्वयं अपने द्वेष व क्रोध में जले जा रहे हैं। यदि रोग की तीव्रता से पागल होकर वे इस शरीर को काटते हैं तो करुणा के पात्र हैं या द्वेष के? जरा तो विवेक कर और फिर ये बेचारे तुझे कुछ कह भी तो नहीं रहे हैं, इस खिलौने से खेलते हैं, बालक जो ठहरे, खिलौने ले-लेकर तोड़ना तो बालकों का स्वभाव ही है । यदि ये इस शरीर रूपी खिलौने को तोड़कर खेल खेल रहे हैं तो इनका दोष भी क्या है? खेलने दे उन्हें, तुझे क्या ? तेरी शान्ति तो तेरे पास है, उसे तो छीनते नहीं बेचारे ।" और इस प्रकार के अनेकों विचारों द्वारा क्रोध को जीत लेते हैं वे प्रकट होने से पहले ही छिपा देते हैं वे। यह है योगी की उत्तम-क्षमा।
कदाचित् ऐसा अवसर आ जाए कि शिष्य मण्डली में से या अन्य सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों में से कोई एक शिष्य या व्यक्ति अनुकूल न चले, या आज्ञा का उलंघन करे, या अभिप्राय से विपरीत कार्य करने लगे, अथवा कोई
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