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________________ ३४. उत्तम क्षमा २३९ ४. अध्यात्म-सम्बोधन बताओ ये शब्द किसके, आपके या मेरे ?” लज्जित हो गया वह बेचारा । शब्दों में यदि शक्ति होती तो उन्हें क्रोध आ जाता । ऐसी दृष्टि में कोई अन्य उन्हें बाधा पहुँचा सके यह शक्ति किसी में नहीं । अपनी ही किसी कमजोरी के कारण कदाचित् क्रोधादि आते हैं, अत: वह कमजोरी ही शत्रु है, उसके प्रति ही उनका युद्ध है और उसको ही अपना पराक्रम दिखाता है साधु 1 ४. अध्यात्म-सम्बोधन—– (१) उत्तम क्षमा की बात चलती है। वे महाभाग्य-दिव्यचक्षु योगीजन अपने अन्दर के शत्रुओं को कैसे जीतते हैं ? अलौकिक जीवों के अलौकिक विचार । यदि कदाचित् उनका नग्न वेश देखकर कोई अज्ञानी कटु-वचनों के बाण चलाने लगे, “देखो बैल सरीखा निर्लज्ज पशु कैसे चला आ रहा है, असभ्य कहीं का, नाम मात्र को मनुष्य है, मूढ़ बुद्धि, ढोंग रचे फिरता है, देखो तो कितना भोला दीखता है ऊपर से, लुच्चा कहीं का" इत्यादि अनेकों वचनों द्वारा तीखे बाण ही फैंक रहा हो मानो, कलेजे को छलनी करते निकले जा रहे हों जो । तो वे परम - योगेश्वर उस समय इस प्रकार विचार करते हैं कि "अरे चेतन ! क्यों कलकलाहट सी हो गई है तेरे अन्दर इन शब्दों को सुनने मात्र से ? बस इसी बिरते पर निकला है संस्कारों से युद्ध करने ? अभी तो तुझे कुछ पीड़ा भी होने पाई नहीं, शरीर पर भी कोई आघात हुआ नहीं, फिर यह व्याकुलता सी क्यों ? बता तो सही कि कहाँ लगे हैं ये वचन तुझको ? दायें-बायें, ऊपर-नीचे किधर भी तो चिपके दिखाई नहीं देते ? कैसे मानता है अपने को घायल ? तू चैतन्य, ब्रह्म, अच्छेद्य व अभेद्य, इसका घायल होना तो असम्भव है ही अपितु यहाँ तो यह शरीर भी घायल नहीं हुआ, तुझे पीड़ा क्यों होने लगी ? क्या शब्दों में इतनी शक्ति है कि बिना आघात पहुँचाये तुझे पीड़ित कर दें ? परन्तु ऐसा होना असम्भव है। ऐसा माने तो तेरे में और लोक के अन्य जीवों में अन्तर ही क्या रहा ? किस प्रकार अपने को शान्तिपथ का पथिक कह सकता है।” “केवल इन दो-चार शब्दों मात्र से तू क्यों अपनी शान्ति को अपने हाथ से लुटा रहा है, इतनी दुर्लभता से प्राप्त करके इसे मुफ्त में ही दिये जा रहा है ? कहाँ गई तेरी बुद्धि, कहाँ गया तेरा विवेक, अपने हित को क्यों नहीं देखता ? इस समय विश्व में सर्वत्र ही तो किसी न किसी के द्वारा कोई न कोई शब्द बोला जा रहा है, उनके द्वारा क्यों विह्वल नहीं हो रहा है तू ? यह भी तो विश्व में रहकर ही बोल रहा है, उन असंख्यात शब्दों में एक यह भी सही । जब उनके द्वारा तुझे बाधा नहीं हो रही है तो इसी के द्वारा क्यों हो ? जहाँ कटु-शब्द बोले जा रहे हैं, वहाँ इस विश्व में कहीं न कहीं मिष्ट व प्रशंसा के शब्द भी तो बोले ही जा रहे हैं। यदि इनको सुनता है तो उनको क्यों नहीं सुनता ?" " और फिर वह भी तो झूठ नहीं कह रहा है, दोष तुझमें होंगे तभी तो कहता है । वह तो बड़ा उपकार कर रहा है, तुझे तेरे दोष दिखाकर सावधान कर रहा है। कितना दयालु है वह ? निष्कारण तेरा रोग दूर करने की भावना करता है । और यदि अनहुए दोष कह रहा है तो भी अच्छा ही है कि 'भविष्य में दोष उत्पन्न न हो जायें, ऐसी भावना द्वारा पानी आने से पहले ही पुल बान्धने को कह रहा है। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ?' और भी अनेकों इसी जाति के शीतल विचारों द्वारा उस अवसर में अपने को शान्त रखता है वह, क्रोधाग्नि को उठने से पहले ही शान्त कर देता है वह । यह है योगी की उत्तम क्षमा । (२) यदि कदाचित् ऐसा अवसर भी आ पड़े कि कोई उसके शरीर को पीटने लगे, थप्पड़ मुक्के मारने लगे, तो भी वह वीर शान्ति को हाथ से जाने नहीं देता । विचारता है कि "अरे चेतन ! क्या हुआ, क्यों पीड़ा होती है, क्या कोई बाधा पहुंची है तुझे ? तू तो अब भी अपनी सर्व शक्तियों को समेटे पूर्ण गुप्त अपने ज्ञान-दुर्ग में बैठा है। क्या तुझे भी कहीं थप्पड़ लगा है ? लगा है तो बता, कहाँ पीड़ा हो रही है तुझे ? क्या ज्ञान में ? परन्तु ज्ञान में पीड़ा होने का क्या काम, वह तो जानता मात्र है । कहाँ चोट लगी है तुझे ? क्या शरीर की चोट को अपनी चोट समझ बैठा है ? अरे ! कहाँ चला गया तेरा विवेक ? यदि शरीर की चोट को चोट माने तो इस स्तम्भ पर पड़ी चोट को भी अपनी चोट मानना चाहिए | क्या अन्तर है शरीर में और इस स्तम्भ में ? वह भी जड़ और यह भी जड़ । यदि क्रोध आ जाता तो अवश्य माना जा सकता था कि तुझे चोट लगी है। पर क्रोध उत्पन्न करने वाला तो तू स्वयं ही है, ये बेचारे प्राणी तुझको क्रोध कैसे उत्पन्न करायें, कौन सा ऐसा हथियार है उनके पास ? और फिर यदि शरीर को कुछ बाधा पहुँची भी तो क्या हुआ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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