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३४. उत्तम-क्षमा
३. साधु की क्षमा ३. साधु की क्षमा-यह हुई गृहस्थ की उत्तम-क्षमा । अब सुनिये साधु की क्षमा । उपरोक्त प्रकार किसी के साथ युद्ध ठानने की स्थिति से वह निकल चुका है। यद्यपि उसके पास कोई पदार्थ ऐसा नहीं जिसका अपहरण करने के लिए कोई उसे तंग करे, इसलिये किसी के प्रति उसे क्रोध आने का प्रश्न नहीं। संज्वलन कषायोदय के आधार पर क्रोध की कमर थपथपाना साधु के लिये आत्म हनन करना है। संज्वलन कषाय बहुत मन्द होती है और कभी बाहर में प्रकट होने नहीं पाती, क्योंकि गृहस्थ-दशा में ही कषायों के संस्कारों का बहुत अंशों में वह विनाश कर चुका है। एक साधक गृहस्थ को भी, बात-बात पर क्रोध या अन्य कषाय उत्पन्न नहीं होती तो साधु को कैसे हो सकती है ?
___ तदपि आहार आदि के अर्थ चर्चा करते हुए कदाचित् नगरों में जाना पड़े और कोई अज्ञानीजन या कोई पशु कदाचित् उपसर्ग करे तो हो सकता है कि क्रोध आ जाय । और उस महान योगेश्वर में तो आत्म शक्ति भी अतुल है, भले ही शरीर से निर्बल दीखता हो, पर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों का स्वामी है । वह चाहे तो एक दृष्टि में भस्म कर दे उसे, या शाप देकर कष्ट-सागर में डुबा दे उसे । परन्तु सच्चे योगियों का यह कर्त्तव्य नहीं। यदि अपनी ऋद्धियों का प्रयोग बाहर में किसी प्राणी पर करता है तो वह योगी नहीं कायर है। योगी किसी को शाप नहीं दिया करते, ऋद्धियाँ होते हए भी उनका प्रयोग नहीं किया करते । पर-कल्याण के लिए यदि करना पड़े तो कदाचित् कर भी लें परन्तु किसी प्राणी को, वह दोषी हो या निर्दोष, किसी भी उचित व अनचित कारणवश वे पीड़ा नहीं पहुँचाते, भले प्राण चले जायें। वे सिंह बनकर निकले हैं, शरीर को ललकार कर निकले हैं, इन प्राणों का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं । वे लौकिक नहीं अलौकिक युद्ध लड़ते हैं जो बड़े से बड़ा योद्धा भी लड़ने में समर्थ नहीं । वे अलौकिक शत्रुओं की जीतते हैं जिन्हें कोई जीतने में समर्थ नहीं। उन कायरों पर क्या वार करें जिनको कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का तथा हित-अहित का भी विवेक नहीं । उनके शत्रु बाहर दीखने वाले मनुष्य व पशु नहीं हैं, चाहे साक्षात् शरीर का भक्षण क्यों न करते हों, इसको अग्नि में क्यों न डालते हों, उबलते हुए तेल के कढ़ाये में क्यों न फेंकते हों, कुत्तों से क्यों न नुचवाते हों, क्योंकि जिसे वे क्षति पहुँचा रहे हैं उस शरीर को अपना मानते ही नहीं वे और जो निज-चैतन्य उनका शरीर है उसे कोई क्षति पहुँचा नहीं सकता।
उनके वास्तविक शत्रु हैं अन्तरङ्ग में उनके कषायानुरंजित वे परिणाम जो उन्हें वास्तव में क्षति पहुँचा सकते हैं अर्थात् उनकी शान्ति भंग कर सकते हैं। योगियों का बल कायर व्यक्तियों पर नहीं इन अत्यन्त सुभट शत्रुओं पर चलता है। क्या किसी क्षत्रिय की खड्ग किसी स्त्री पर या नपुंसक पर उठती है ? भले उसके प्राण चले जायें पर क्या वह इनके प्रति युद्ध ठानता है, इनको अपना पराक्रम दिखलाता है ? धन्य हैं वे, उनकी दृष्टि विलक्षण है, वे प्राणियों या वस्तुओं को उस दृष्टि से नहीं देखते जिससे कि हम देखते हैं और इसीलिए आश्चर्य होता है उनके साहस पर । वे सब को तात्विक दृष्टि से देखते हैं, उनकी दृष्टि में वे चैतन्य हैं और शरीर जड़, जिससे उनका कोई नाता नहीं। उनकी दृष्टि में लोक की कोई शक्ति उन्हें बाधा पहुँचाने में समर्थ नहीं, क्योंकि वे अच्छेद्य हैं, अविनश्वर हैं, अदाह्य हैं अर्थात् वे जल नहीं सकते। जब वे छिद भिद सकते ही नहीं, जल सकते ही नहीं, तो कोई कैसे उन्हें छेदे-भेदे या जलाये । छेदना-भेदना तो रहा दूर, उन्हें कषाय उत्पन्न कराने की शक्ति भी किसी अन्य में नहीं है । वे स्वयं क्रोधादि करें तो करें, कोई अन्य नहीं करा सकता। यही तो है वस्तु की स्वतन्त्रता, जो विवेक-ज्ञान वाले प्रकरण में दर्शायी जा चुकी है (देखो ९.४)। विचारिये तो सही कि यदि आप मुझे गाली दें या मारें, और मैं क्रोध न करूँ, तो क्या आप जबरदस्ती मझे क्रोध करा सकते हैं ? आप मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे क्रोध नहीं करा सकते।
देश-भक्तों को अंग्रेजों ने जेल में ठोंका, अनेकों कष्ट दिये, परन्तु क्या उनमें इतनी सामर्थ्य थी कि उनसे जबरदस्ती उनकी अन्तरङ्ग देशभक्ति के भाव को छुड़ा देते ? मानतुंग आचार्य को अड़तालीस तालों के अन्दर बन्द किया, परन्तु क्या कोई उनके अन्दर जागृत हुई प्रभु-भक्ति पर प्रतिबन्ध लगा सका? आज यदि मैं आपको कहूँ कि आपको क्रोध करना पड़ेगा तो क्या आप कर सकेंगे ? महात्मा बुद्ध को एक व्यक्ति ने खूब गालियाँ सुनाई पर वे सुनते रहे शान्त भाव से। जब वह व्यक्ति चुप हो गया तो बोले कि “भाई ! यदि कोई वस्तु मैं तुम्हें दूं और तुम न लो तो वह वस्तु किसकी?" "जिसने दी उसकी ।” “तो बस आपने मुझे जो शब्द दिये, मैंने तो उन्हें लिया नहीं क्योंकि मुझे क्रोध आया नहीं, यदि क्रोध आ जाता तो सम्भवत: कह दिया जाता कि मैंने उन्हें स्वीकार किया है। तो अब
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