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________________ ३४. उत्तम-क्षमा २३७ ३. साधु की क्षमा दूसरे प्रकार की भी क्षमा है, जो प्रतिद्वन्दी को खूब मार-पीट कर अपने अरमान निकाल लेने के पश्चात् ‘जा माफ़ किया, फिर ऐसा न करना' ऐसे करने में आती है । वह भी सच्ची क्षमा नहीं है, कहने मात्र की है । शक्ति के अनुसार जो कुछ करना था कर लिया, क्रोध निकाल लिया, फिर क्षमा क्या किया? यह भी द्वेष की कोटि में आ जाती है, परन्तु पहले के द्वेष और इस द्वेष में महान अन्तर है पहले द्वेष की अपेक्षा इस द्वेष की शक्ति कम है, क्योंकि यह उतने ही समय मात्र के लिये रहकर समाप्त हो जाता है, पीछे मिलने पर उस व्यक्ति से कोई विशेष घृणा नहीं होती। असली क्षमा वह है जिसमें द्वेष का नाम न हो । गृहस्थ को वह कैसे होती है ? देखिये । कर्त्तव्य-परायण गृहस्थ के लिए अपना कर्त्तव्य निभाते हुए द्वेष करने की आवश्यकता नहीं । अहिंसा वाले प्रकरण के अन्तर्गत विरोधी-हिंसा की बात आई है जो कि संयमी-गृहस्थ भी अवसर आने पर कर गुजरता है, परन्तु गौर करके देखने पर वहाँ आपको द्वेष दिखाई नहीं देगा। शत्रु से युद्ध द्वेषवश नहीं किया जाता, बल्कि आत्म-रक्षा या निज सम्मान की रक्षा के लिए किया जाता है और इसलिए यदि कदाचित् शत्रु को जीत लिया जाए तो उसे तंग नहीं किया जाता बल्कि शान्ति-पूर्वक समझा बुझाकर तथा कुछ उपयोगी शिक्षायें देकर तुरन्त छोड़ दिया जाता है। उसकी दृष्टि केवल आत्मरक्षा की थी सो वह हो गई, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए था, इसलिए अवसर बीत जाने के पश्चात् वह व्यक्ति पहले की भाँति ही दीखने लगता है । यदि पहले मित्र था तो अब भी मित्र दीखता है और यदि पहले सामान्य मनुष्य था अर्थात् न शत्रु था न मित्र तो अब भी वैसा ही दीखता है । यह है गृहस्थ की सच्ची क्षमा। भारत के वीरों का यही आदर्श रहा है । भगवान राम ने रावण पर चढ़ाई की, परन्तु अन्तिम समय तक यही प्रयत्न करते रहे कि किसी प्रकार युद्ध न करना पड़े तो ठीक । शक्ति की कमी हो इसलिए नहीं बल्कि इसलिए कि अन्तरंग में रावण के प्रति कोई द्वेष नहीं था। उन्हें अपने सम्मान की रक्षा के लिये सीता दरकार थी और कुछ नहीं । उन्हें रावण की स्वर्णमयी लंका की बिल्कुल इच्छा नहीं थी और इसीलिए अन्तिम समय तक यही सन्देश भेजते रहे रावण के पास कि सीता लौटा दो तो हम युद्ध नहीं करेंगे, हमें तुझसे कोई शत्रुता नहीं है । पर रावण न माना तो क्या करें ? सम्मान की रक्षा तो उस समय कर्तव्य था ही । यदि उस समय उस कर्त्तव्य को पूरा न करते तो कायर थे । परन्तु ऐसी परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर साध का इस प्रकार का कर्तव्य नहीं है क्योंकि ऐसी दशा में साधु को सब समान हैं। आत्म-सम्मान है, शान्ति में बाधक उनके अपने परिणाम ही उनके शत्रु हैं, इसलिए यदि युद्ध करते हैं तो अन्तर-परिणामों से, बाहर के किसी व्यक्ति से नहीं, क्योंकि उनकी दृष्टि में कोई शत्रु है ही नहीं । वे यदि बाहर में किसी व्यक्ति से युद्ध करें तो कायर हैं । दशा भेद हो जाने से कार्य में भेद पड़ जाता है । अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने को वे (राम) यद्यपि रावण से लड़े परन्तु जीत होने के पश्चात् उससे अनुचित व्यवहार न किया, उसका सम्मान किया तथा लक्ष्मण को उसे गुरु स्वीकार करने की आज्ञा दी । सीता मात्र को लेकर वापिस आ गए, लंका की एक वस्तु भी नहीं छुई । उन्हें आवश्यकता ही न थी किसी पदार्थ की। बताइये क्या राम को क्रोध था रावण पर? यह है एक गृहस्थ की उत्तम-क्षमा। पृथ्वीराज ने सात बार मुहम्मद गौरी को युद्ध में बन्दी बनाया परन्तु हर बार उसे समझाकर छोड़ दिया, उसका कुछ भी नहीं छीना । आत्मरक्षा करनी इष्ट थी, हो गई, आगे कुछ नहीं किया, क्योंकि मुहम्मद गोरी से कोई द्वेष नहीं था उसे । पृथ्वीराज वीर था, क्षमा उसका भूषण था, उसे अपने बल पर विश्वास था, अपनी क्षमा के कर्त्तव्य को भूलकर वह कायर नहीं बनना चाहता था। यह थी भारत के वीरों की आदर्श-क्षमा । कायरों को शोभा नहीं देती यह, वीरों का भूषण है यह । भले ही आज का युग उसे भ्रमवश पृथ्वीराज की भूल बताता हो और उसके इस महान कृत्य को भारत की पराधीनता का कारण बताता हो, परन्त जगत की यह बात स्वार्थ में से निकल रही है कर्तव्य में से नहीं. पामरता मे से निकल रही है वीरता में से नहीं। जिस क्षमा को कायरता कहा जाता है वही सच्ची वीरता थी। भारत का ह्रास पृथ्वीराज की इस क्षमा के कारण नहीं हुआ, बल्कि हुआ जयचन्द के उस द्वेष के कारण जिसके वशीभूत होकर कि उसने पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए शत्रु से साज-गाण्ठ की। दोषी की दृष्टि में दोष तो दीखता नहीं, गुण में से दोष निकालने का प्रयत्न करता है। आज के स्वार्थी व कायर लोगों की दृष्टि भी दोष खोजने के लिए पृथ्वीराज की ओर जाती है, जयचन्द की ओर नहीं जो कि वास्तव में दोषी था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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