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३४. उत्तम-क्षमा
( १. सामान्य परिचय; २. गृहस्थ की क्षमा; ३. साधु की क्षमा; ४. अध्यात्म सम्बोधन; ५. गृहस्थ को प्रेरणा। १. सामान्य परिचय
कोहो पीइं पणासेड़ माणो विणयणासणो। माया मित्ताणि नासेड़, लोहो सव्वविणासणो॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे।
मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।। “क्रोध प्रीति को नष्ट करता है और मान विनय को, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सर्व-विनाशक है। अत: कषायों को जीतना साधु का सर्वप्रधान तथा सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। उन्हें चाहिए कि क्षमा से क्रोध का हनन करें और मार्दव से मान को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतें ।” साधु-धर्म की प्रक्रिया में उत्तम-क्षमा आदि दस धर्मों का उल्लेख किया गया है । अब उनका क्रम से विस्तार करना है। पहला धर्म है 'उत्तम-क्षमा'।
खम्मामि सव्वजीवाणं, सब्वे जीवा खमन्तु मे।
मित्ती में सव्वभूदेसु, वेरं मझं ण केण वि।। “मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सर्व जीव भी मुझे क्षमा करें । मेरा उनके प्रति मैत्री का भाव है और किसी के साथ भी मुझे वैर नहीं है।" इस प्रकार के आत्म-परिणाम का नाम है उत्तम-क्षमा । क्रोधाग्नि को बुझाने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई शीतलधारा नहीं। क्षमा का अर्थ है शान्ति और परिणामों में क्रोध का न आना है शान्ति । वास्तव में क्रोध है वह भल जिसके कारण अपनी महिमा अन्तरंग में जागत होती नहीं। भोगादि सामग्री में अपने अभाव करके अविनाशी शान्ति की अवहेलना करना अनन्ता क्रोध है । 'परपदार्थों का मैं कुछ कर सकता हूँ और पर की सहायता के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता' ऐसी धारणा के द्वारा अपनी शक्ति का तिरस्कार करना, उसके प्रति अनन्ता क्रोध है । प्रभो ! अपनी शक्ति को पहिचान, दूसरे की ओर देखना छोड़, अपने लिए प्रयास कर, अपनी शक्ति से प्रयास कर, दूसरे से सहायता मांगकर भिखारी मत बन।।
गृहस्थ व साधु के जीवन में महान अन्तर है, इसलिए उनकी क्षमा में भी महान अन्तर है। गृहस्थ अवस्था में रहते हुए व्यक्ति को अनेकों अवसर क्रोध के आ जाते हैं, साधु को इतने नहीं आते । अल्प-दशा के कारण गृहस्थ को तीव्र क्रोध भी आ जाता है परन्तु साधु को तीव्र क्रोध का तो प्रश्न नहीं, मन्द भी प्राय: नहीं आता है। यदि कदाचित् आ भी जाए तो वह उसे बाहर प्रकट होने नहीं देता, अन्दर ही अन्दर उसे शान्त कर देने का प्रयत्न करता है। क्रोध बाहर में प्रकट हुआ तो साधु काहे का ?
२. गृहस्थ की क्षमा-अब पहले सुनिए गृहस्थ की उत्तम-क्षमा। क्षमा कई प्रकार की हो सकती है। एक वह क्षमा जो किसी प्रतिद्वन्दी के द्वारा किसी भी प्रकार अपनी क्षति हो जाने पर उससे बदला लेने की शक्ति का अभाव होने के कारण चुप्पी साधकर कर ली जाती है, परन्तु अन्तरंग में अभिप्राय यह पड़ा रहता है कि 'यदि शक्ति होती तो मज़ा चखा देता इसको । अच्छा, अब न सही, फिर देख लूंगा।' इस प्रकार अन्तरंग में कटु द्वेष की ज्वाला में भुनते हुए भी बाहर से कह देना कि 'जा तुझे क्षमा किया। इसी के अन्तर्गत वह क्रोध भी आ जाता है जो अंतरंग में न जाने कब से चले आये द्वेष के रूप में पड़ा रहता है और बाहर में उस व्यक्ति से खूब मित्रता सरीखी दिखाता है, सहानुभूति दर्शाता है इत्यादि । इसको कहते हैं मात्सर्य । इस प्रकार के दिखावटी भाव को तो लोक में भी क्षमा नहीं कहते, तब इस प्रकरण में कैसे कह सकते हैं। वह क्रोध से भी अधिक घातक है, क्योंकि बहुत लम्बे समय तक बराबर अन्तरङ्ग में द्वेष बना रहता है।
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