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३३. अपरिग्रह
७. अपरिग्रहता स्वयं सुख
, यह धारणा पड़ी है कि अमुक स्थान पर पड़ा रुपया मेरा है। बस वह भोग तो रहा है ज्ञान में पड़ी स्वामित्व विषयक उस धारणा को और आनन्द आ रहा है उसे ऐसा मानो वह स्वयं भोग रहा हो धन को । इसी प्रकार यदि तू भी सर्व विश्व को अपना कुटुम्ब समझकर (दे० २६.१०), विश्व रूपी बैंकों में पड़ी त्रिलोक की सम्पत्ति में यह धारणा बना ले कि यह सब मेरी है, मेरा कुटुम्ब ही इसे भोग रहा है, तो क्या तुझे वैसा ही आनन्द न आयेगा जैसा कि उसे स्वयं भोगने से ? इस प्रकार देखने से तू ही बता कि दोनों में कौन अधिक धनवान प्रतीत होता है ? हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा । धन कमाने के विकल्पों में फँसे बिना तथा अशान्ति में पड़े बिना तीन लोक का अधिपति बनने की बात है और इस प्रकार वास्तव में सर्वस्व त्यागी ही यथार्थ धनिक है, भौतिक धन का भी तथा सन्तोष-धन का भी ।
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वैसा बनने का लक्ष्य बना है तो क्यों इन दो चार ठीकरों की चमक में अन्धा हो अपनी शान्ति का गला घोंट रहा है, क्यों अपना कर्तव्य भूल बैठा है, क्यों स्व व पर-प्राणों का हनन कर रहा है ? समझ, इधर आ, सन्तोष धर, जीवन की आवश्यकताओं को सीमित कर तथा उस सीमा से अधिक, सञ्चय का प्रयास छोड़ दे। आगरे के पं० बनारसीदास जी का व पं० सदासुखदास जी का जीवन याद कर । वे भी गृहस्थ थे, जिनके सन्तुष्ट हृदय ने अपने ऊपर प्रसन्न हुए डिप्टी से, बजाए यह माँगने के कि उनका वेतन बढ़ा दिया जाए, यह माँगा था कि उनका वेतन ८ रुपये की बजाय ६ रुपये कर दिया जाए और कार्य बजाए आठ घण्टे के छः घण्टे लिया जाए, जिससे कि वे शेष दो घण्टों में अपनी शान्ति की उपासना कर सकें। यह उसी समय सम्भव हुआ जबकि उनकी दैनिक आवश्यकताएँ बहुत कम थीं, उनका जीवन सीमित था । भौतिक धन से कहीं अधिक उनकी दृष्टि में सन्तोष-धन का मूल्य था । वैसा ही तू भी बनने का प्रयत्न कर और तू अनुभव करेगा साक्षात् रूप से, जीवन में धीरे-धीरे प्रवेश करती उस शान्ति का । यदि अपरिग्रही आदर्श की शरण में आया है, यदि वीर प्रभु का व दिगम्बर- गुरुओं का उपासक कहलाने में अपना गौरव समझता है, तो अवश्य अपने जीवन में उपरोक्त रीति से कुछ न कुछ सन्तोष उत्पन्न कर । सन्तोष-धन ही वास्तविक धन है क्योंकि यह प्रत्येक जीव के स्वामित्व में पृथक्-पृथक् अपना-अपना ही उत्पन्न होता है, और किसी अन्य के द्वारा बंटवाया नहीं जा सकता । सीमित इच्छा की पूर्ति में सन्तोष हो जाने के कारण यहाँ ही सुख सम्भव है । अत: सोना-चाँदी, रुपया-पैसा, घर-जायदाद, कपड़ा-बर्तन, तांगा - मोटर, पशु आदि वस्तुओं का और सजावट की वस्तुओं का परिमाण तथा सीमा बांधकर अपने जीवन को कुछ हल्का बना । आदर्श की शरण का फल यही है ।
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वीर भामाशाह का आदर्श अपरिग्रह व्रत यह सब सम्पत्ति मेरी है ही कब । विश्व की है, विश्व की रहेगी।
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