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________________ ३३. अपरिग्रह ७. अपरिग्रहता स्वयं सुख कोई लेने वाला चाहिए। तू इस परम सौभाग्य से वञ्चित न रह । इस वर्तमान गृहस्थ- दशा में भले ही एकदम इस आदर्शवत् पूर्ण अपरिग्रही बनने में समर्थ न हो, पर धीरे-धीरे त्याग का अभ्यास करते रहने से क्या तेरे अन्दर वैसी ही शक्ति उत्पन्न न हो जायेगी ? अवश्य हो जायेगी। आवश्यक वस्तुओं का न सही पर अनावश्यक वस्तुओं का त्याग तो सहज कर ही सकता है और इससे तेरे गृहस्थ में कोई बाधा भी नहीं आती । गृहस्थ को चलाने के लिए आवश्यकतानुसार धनोपार्जन का न सही, पर आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन का त्याग तो कर ही सकता है और धीरे-धीरे अपनी आवश्यकताओं में भी क्रमश: कमी कर ही सकता है । २३४ ६. परिग्रह स्वयं दुःख- परिग्रह- सञ्चय की भावनाओं में अन्धा हुआ तू दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्य को भूला तो भूला, परन्तु यह भी भूल गया कि जिसके पीछे तू सुख के लिए दौड़ रहा है वही तेरे लिए दुःख का कारण बन बैठा है। जिसका सञ्चय तू अपनी रक्षा के लिए करता है वह स्वयं तेरा हनन कर रहा है, तेरी शान्ति का घात कर रहा है। तू साक्षात् इसमें दुःख देखता हुआ भी नहीं देखता, यह महान आश्चर्य है । देख भाई ? मैं दर्शाता हूँ तुझे इस परिग्रह का स्पष्ट दुःख । तनिक ध्यान दे इन सुन्दर वस्त्रों की ओर जिनको तूने शरीर की रक्षा के लिए ग्रहण किया, परन्तु जिनकी रक्षा तुझे स्वयं करनी पड़ रही है । थकावट अनुभव करते हुए भी तथा बैठने की इच्छा होते हुए भी तू बैठ नहीं सकता, पैन्ट की क्रीज जो बिगड़ जाएगी, हजार रुपये की साड़ी पर हुआ ज़री का काम जो खुसट जाएगा। आज वस्त्र तेरे लिए नहीं बल्कि तू वस्त्र के लिए है क्योंकि वस्त्र शरीर की रक्षा के लिए न होकर आज शरीर को सजाने के लिए हैं। खेद है कि फिर भी इस वस्त्र को तू सुख का कारण मान रहा है I क्या कभी ध्यान दिया है घर में पड़े उस अड़ंगे की ओर, जिसकी रक्षा तू वर्षों से करता चला आ रहा है परन्तु जो कभी तेरे उपयोग में नहीं आता ? दिवाली के समय घर की सफ़ाई करते हुए जब उसका ढेर तेरी दृष्टि के सामने आता है तो तू स्वयं उसको देखकर घबरा जाता है, उसे फेंक देने की इच्छा करता है, परन्तु सफ़ाई करने के पश्चात् सामान को यथास्थान रखते समय पुन: वह अड़ा पूर्ववत् अपने स्थान पर पहुँच जाता है, और उस क्षणिक घबराहट को जो तुझे उसे देखकर हुई थी तू फिर भूल जाता है। तनिक विचार तो कर कि घर में पड़ा यह सब वस्तुओं का ढेर यदि एक स्थान पर लगाकर देखे, तो कितनी वस्तुएँ ऐसी होंगी जो तेरे नित्य प्रयोग में आने वाली हैं ? यदि सर्व वस्तुएँ एक हजार हों तो सम्भवत: ५० वस्तुएँ ही ऐसी मिलेंगी जो नित्य प्रयोग में आ रही हैं। कुछ १५० वस्तुएँ ऐसी मिलेंगी जो कदाचित् प्रयोग में आ जाती हैं। परन्तु शेष ८०० वस्तुएँ तो ऐसी ही दिखाई देंगी उस ढेर में जो कई वर्षों से काम में नहीं आई हैं और न ही जिनकी भविष्य में कोई आवश्यकता प्रतीत होती है, या ऐसी हैं जिनका तेरी दैनिक वश्यकताओं से तो सम्बन्ध नहीं परन्तु नेत्र - इन्द्रिय की तृप्ति के लिए अथवा केवल अपनी दृष्टि में अपने कमरों को सज्जित बनाने मात्र के लिए रख छोड़ी हैं। कभी विचारा है यह कि इस अनावश्यक अड़ंगे को उठाने-धरने के लिए, इसकी सफ़ाई के लिए, इसकी व्यवस्था के लिए तथा इसकी रक्षा के लिए अनेकों विकल्पों में से गुजरते हुए तुझे कितनी व्याकुलता होती है ? पर खेद है कि फिर भी तू उसे सुख का कारण मान रहा है । सुख तो है इच्छा की पूर्ति में, परन्तु क्या धन सञ्चय करने की इच्छा कभी पूरी होनी सम्भव है ? तीन लोक की सम्पत्ति भी जिस इच्छा में परमाणुवत् भासती है । उसकी पूर्ति अनन्तानन्त जीवों में विभाजित इस सीमित सम्पत्ति से कैसे हो सकेगी ? सम्पत्ति सीमित है और इच्छा असीम । इच्छा की पूर्ति के अभाव में तू कैसे इस धन सञ्चय से सुख प्राप्त कर सकेगा ? यह सञ्चय तो तेरी इच्छा को और भड़कानेवाला है और इस कारण अधिक अशान्ति व व्याकुलता का कारण है, परन्तु आश्चर्य है कि इसको ही तू सुख का कारण मान रहा है । ७. अपरिग्रहता स्वयं सुख भो चेतन ! अधिक धनवान बनने से लाभ भी क्या है ? 'अधिक धनवान कौन' क्या इस बात पर विचारा है कभी ? क्या वह, जिसका करोड़ों रुपया फ़ालतू बैंकों में पड़ा है अथवा किसी फ़र्म में लगा है; या कि वह जिसने सर्वस्व त्याग दिया है ? विचार तो सही कि क्या बैंक आदि में पड़े अथवा तिजोरी में पड़े रुपये को अथवा स्वर्ण आदि सम्पत्ति को साक्षात् रूप से कोई भोग रहा है ? क्या वह उसके प्रयोग में आ रही है ? उसका भोग तो कोई और ही कर रहा है और सन्तोष हो रहा उसे । क्यों ? केवल इस कारण कि उसकी बुद्धि में, उसके ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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