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३३. अपरिग्रह
५. आंशिक अपरिग्रहता
आज का मानव, दूसरे के प्रति अपने कर्त्तत्य से विमुख हुआ, अत्यन्त स्वार्थी बना, दूसरों की आवश्यकताओं की परवाह न करता हुआ, दूसरों की शान्ति को पद-दलित करता हुआ, भूला हुआ, अपनी शान्ति की खोज करने का जो प्रयास कर रहा है, क्या उसमें फल लगना सम्भव है ? कदापि नहीं, दूसरों की शान्ति को बाधित करके न कोई शान्त रहा है और न रह सकेगा। लालच की बढ़ती ज्वाला तथा अधिकाधिक सञ्चय की भावना स्वयं उसको भस्म कर देगी। इस अग्नि को सन्तोष जल के द्वारा ही बुझाया जा सकता है, एटमबम के द्वारा नहीं । अपरिग्रह के आदर्श-भूत योगियों के प्रति बहमान के न रहने के कारण ही मैं अपनी दैवी संस्कृति को भूलकर आसुरी संस्कृति अपनाने दौड़ रहा हूँ। केवल शत्रुता, असन्तोष, चिन्तायें व भय ही मानो आज मेरा गौरव बन गया है।
भो प्राणी ! तनिक विचार तो सही कि कब तक चलेगी यह अवस्था ? तू नहीं तो तेरी सन्तान इसके दुष्परिणाम से बची न रह सकेगी। आज हमारी भारत सरकार भी देश में इस असन्तोष के बढ़ते हुए वेग की रोकथाम करने के लिये अनेकों नियम लागू करती जा रही है जो तुझे आज अच्छे प्रतीत नहीं होते । क्यों हों, संग्रह किया हुआ है न तूने ? पूजीपति जो ठहरा तू, तुझे क्या परवाह दूसरे की आवश्यकताओं की ? तेरा हृदय उन नियमों के विरुद्ध उपद्रव करने के लिये प्रेरित कर रहा है तुझे, पर क्या करे साहस नहीं । तेरे विचार वाले देश में हैं ही कितने ? धिक्कार है उस स्वार्थ को जिसने तेरे ही भाइयों के प्रति तुझे इतना हृदय-शून्य बना दिया। अब भी सम्भल, भले कोई और न समझे तू तो समझ। तझको अपरिग्रही गुरुओं की शरण प्राप्त हई है, तेरे हृदय में इस आदर्श के प्रति बहमान उत्पन्न हआ है, त इन्हें पृथ्वी का भार कहने के लिए तैयार नहीं, तूने उनको भव-समुद्र में पड़ी नौका का खेवनहार स्वीकार किया है । इस आदर्श से तू कुछ ग्रहण कर । आदर्श का सच्चा बहुमान वही है जो जीवन को उस ओर झुका दे, केवल शब्दों में कहने का या पाठ पढ़ने का नाम भक्ति व बहुमान नहीं है ।
यह आदर्श मूक-भाषा में तुझे अपरिग्रहता का पाठ पढ़ा रहा है। परिग्रह अर्थात् परि + ग्रहण । 'परि' अर्थात् 'समन्तात्' सर्व ओर से ग्रहण । दसों दिशाओं से, हर प्रकार, न्याय-अन्याय तथा योग्यायोग्य के विवेक बिना, निज
चैतन्य के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के ग्रहण की भावना व इच्छा परिग्रह है। इस इच्छा का त्याग सो अपरिग्रह । केवल पदार्थ का नाम परिग्रह नहीं बल्कि उसके ग्रहण की इच्छा का नाम परिग्रह है । यदि ऐसा न हो तो अत्यन्त असन्तोषी जीवन बिताने वाले निर्धन-जन भी अपरिग्रही कहलायेंगे। परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि यह परिग्रह-निषेध वास्तव में पदार्थों के लिए या आदर्श की नकल के लिए नहीं किया जा रहा है बल्कि उनके ग्रहण की इच्छा के निषेध के लिये किया जा रहा है । वह भी इसलिए कि ये इच्छायें ही अशान्ति व असन्तोष की जननी हैं और इनके अभाव में ही सन्तोष व शान्ति है । जिसे शान्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिये, उसके हृदय में कैसे अवकाश पा सकती हैं ये इच्छायें और इच्छाओं के अभाव में कैसे हो सकता है सम्पत्ति का ग्रहण तथा सञ्चय ?
सरकारी नियम के दबाव से नहीं बल्कि अपने हित के लिए, स्वयं अत्यन्त हर्ष व उल्लासपूर्वक, इन इच्छाओं के त्याग की बात है। किसी के दबाव से किया गया त्याग वास्तव में त्याग नहीं। इस परिग्रह अर्थात् सञ्चय की इच्छा के कारण, कितने प्राणियों को तुझसे अनेकों प्रकार की पीड़ायें पहुँच रही हैं ? इसके आधार पर उपजे संकल्प-विकल्पों के जाल में फंसकर तू क्या कुछ अनर्थ नहीं कर रहा है ? हिंसा का एक बड़ा भाग इसी इच्छा की महान उपज है और इसलिए परिग्रह हिंसा की जननी है, महान हिंसा है । जीवन को संयमी बनाने तथा हिंसा से बचाने के लिए परिग्रह का त्याग अत्यन्त आवश्यक है, इसके बिना सर्व संयम निर्मूल है।
५. आंशिक अपरिग्रहता–अहो ! कैसी उल्टी बात चलती है ? लोग आते हैं प्रभु की पूजा को इसलिये कि धर्म होगा जिसके कारण अधिक धन मिलेगा, प्रभु पर छत्र चढ़ाते हैं इसलिए कि धन मिलेगा; परन्तु यहाँ बतलाया जा रहा है कि प्रभु का दर्शन करो इसलिए कि उसका आदर्श जीवन में उतर जाय, जैसा अपरिग्रही वह है वैसा ही स्वयं बन जाय। विचित्र बात है परन्तु आश्चर्य न कर क्योंकि वही वस्तु दी जा सकती है जो कि किसी के पास हो। इस अपरिग्रही आदर्श के पास धन है ही कहाँ जो तुझे दे देगा? इससे धन की याचना करना भूल है। उसके पास है अपरिग्रहता, वीतरागता और उसे ही यह दे भी सकता है, दे भी रहा है, रोम-रोम से वीतरागता की किरणें फूटी पड़ती हैं,
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