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३३. अपरिग्रह
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४. अपरिग्रहता साम्यवाद
४. अपरिग्रहता साम्यवाद — वह अपरिग्रहता जो संयमियों अथवा संन्यासियों की ही नहीं, राष्ट्र तथा समाज की भी सर्व-प्रधान आवश्यकता है। यह दृष्टि है वह जिसमें सर्व लोक अपना कुटुम्ब भासने लगता है, जिसकी विश्व आज माँग कर रहा है, जिसने रूस में जन्म पाया और बड़ी तीव्र गति से विश्व में फैल गई, जिसको इतने बड़े राष्ट्र चीन ने अपनाया और जिसकी ओर धीरे-धीरे हमारा भारत देश भी अब बढ़ रहा है। इतना ही नहीं बल्कि समस्त विश्व का अन्तष्करण आज जिसको स्वीकार कर रहा है तथा शीघ्रातिशीघ्र जिसके प्रचार की प्रतीक्षा की जा रही है। वह दृष्टि है साम्यवाद (कॉम्यूनिजम) अर्थात् सभी को समान अधिकार दिलाना । शान्ति के उस पुजारी के हृदय में जिसे तू आज अपने आदर्श रूप में अपने सामने देख रहा है तथा भ्रमवश जिसे तूने अकर्मण्य तथा पृथ्वी का भार मान लिया था, स्वयं एक क्रान्ति उत्पन्न हुई । जिस प्रकार चार व्यक्तियों वाले अपने कुटुम्ब की आवश्यकताओं को पूरी करने के पश्चात् ही आप अपनी आवश्यकता का विचार करते हैं, जिस प्रकार अपने कुटुम्ब की प्रसन्नता में ही आप अपनी प्रसन्नता मानते हैं, उसके सुख में ही अपना सुख समझते हैं तथा उसके लिए अपना सर्वस्व त्यागकर भी आपको सन्तोष होता है; उसी प्रकार वह योगी जिसकी दृष्टि में साम्यता ने वास किया है, सर्व ओर से निराश हुई शान्ति ने जिसका आश्रय लिया है, जिसको सर्वत्र अपना ही रूप दिखाई देता है, जिसके लिए सर्व सृष्टि एक ब्रह्मस्वरूप हो गई है, जिसको सर्व प्राणी ईश्वर के आवास भासते हैं, जिसके लिए समस्त विश्व उसका कुटुम्ब है, (दे० २६.१०) जिसके लिये कुटुम्ब में से किसी एक की भी पीड़ा उसकी अपनी पीड़ा है और किसी एक का भी सुख उसका अपना सुख है यदि वह इस विश्व के लिए अपना सर्वस्व त्याग दे तो क्या आश्चर्य की बात है ? तेरी दृष्टि संकुचित है, इसी से उसके अन्तर- परिणामों का परिचय पाने में असमर्थ है। वह विश्व का पिता है, अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताओं को विश्व की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बलिदान कर देने में उसे प्रसन्नता ही होती है, क्योंकि उसने यह कार्य किसी के दबाव से नहीं किया है, स्वयं विश्व के प्रति अपने कर्त्तव्य को पहिचान कर किया है। इसी भाव का स्पष्ट चित्रण आगे 'उत्तम त्याग' वाले ४२वें अधिकार में किया गया है। भला ऐसा विश्व पिता क्या पृथ्वी का भार हो सकता है ? यह शब्द कहना तो दूर सुनते हुए भी कलेजा काँप उठता है । जिसने विश्व के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया, वह पृथ्वी का भार नहीं बल्कि पृथ्वी का गौरव है, पृथ्वी के पापों का, इसके अपराधों का व शापों का भार दूर करने वाला है
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आज विश्व भौतिक दृष्टि से उन्नति के पथ पर प्रगति करते हुए भी शान्ति की दृष्टि से अवनति की ओर जा रहा है । चारों ओर त्राहि-त्राहि मची है, नित्य की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के योग्य पर्याप्त सामग्री के अभाव में असन्तोष बढ़ता जा रहा है। एक दूसरे की ओर संशय की दृष्टि से, भय की दृष्टि से देख रहा है। एक व्यक्ति दूसरे की सम्पत्ति की ओर लालच की दृष्टि से देख रहा है। आकाश पर छाये हुए युद्ध के बादलों ने सब ओर अन्धकार कर दिया है। विश्व जीवन व मृत्यु के झूले में झूल रहा है और निराश - सा खड़ा अपने दिन गिन रहा है। दूसरी ओर अट्टहास करती मृत्यु अपनी अनेकों शक्तियों को साथ लिये भय का प्रसार कर रही है। जीवन भार बन चुका है। कैसी दयनीय अवस्था है इसकी आज ? अपरिग्रहता ही इसका प्रतिकार है अन्य कुछ नहीं ।
वीतरागी व शान्तमुद्रा इन योगी-जनों को पृथ्वी का भार बताने वाले, ओ कृतघ्नी मानव ! अब भी सम्भल । यदि जीवन चाहता है तो अपनी भूल पर पश्चाताप कर । जगत के भार को हरने वाले उन योगियों के अभाव के कारण ही वास्तव में आज जगत का भार बढ़ गया है और यदि अपने वचनों को वापिस लेकर तूने पश्चाताप न किया तो car ही डूबे बिना न रहेगा। 'यह जगत को क्या दे रहा है ?' यह प्रश्न भी बड़ा असंगत है क्योंकि वास्तव में 'वह' वह कुछ दे रहा है जो कोई नहीं दे सकता, सुख का उपाय, एक जीवन- आदर्श, जिस पर चलकर आज का मानव तथा समस्त विश्व इस भावी- मृत्यु से अपनी रक्षा कर सकता है; वह सन्देश जिसका मूल्य त्रिलोक की सम्पत्ति से भी चुकाया नहीं जा सकता। यदि कोई उस सन्देश को ग्रहण न करे तो उनका क्या दोष ? 'किसी अच्छी बात को यदि दूसरा कोई ग्रहण न करे तो वह भी उसको छोड़ दे' यह कोई न्याय नहीं ।
डराने के लिए यह बात कही जा रही हो, ऐसा नहीं है बल्कि सैद्धान्तिक सत्य बताया जा रहा है। अपरिग्रही जीवन से साक्षात् अभाव के कारण तथा उस आदर्श के प्रति बहुमान के स्थान पर घृणा प्रवेश हो जाने के कारण ही
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