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३३. अपरिग्रह
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३. लक्ष्य-पूर्ति
___“भो चेतन ! अन्तर-उद्वेग को एक क्षण के लिये शान्त करके सुन तो सही कि मैं क्या कहता हूँ। यह तेरे कल्याण की बात है, शान्त-चित्त होकर सुनेगा तो अवश्य तुझे कुछ अच्छी लगेगी। अपने कल्याण की बात, अपने हित की बात, अपने सुख की बात सुनकर कौन ऐसा है जो उसकी अवहेलना करे? अपनी शान्ति से भटक कर अनेक-विध विकल्प जाल का निर्माण करता हुआ तू स्वयं उसमें उलझा जा रहा है। परन्तु इस दशा में भी मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि उस शान्ति के प्रति तेरे चित्त में प्रथम क्षण उत्पन्न हुआ वह आकर्षण अब तक विलीन नहीं हो पाया है। उस आकर्षण को, उस जिज्ञासा को अपने हृदय में टटोलकर, उसके बहुमान-पूर्वक एक बार तो मेरी बात सुन ।” _ भो चेतन ! कभी भक्ति कभी दया और कभी घृणा के जो अनेक विकल्प इस थोड़ी देर में तेरे चित्त में उत्पन्न होकर स्वयं तुझे व्याकुल बना तेरी शान्ति तुझसे छीनकर ले गए, तेरे घर में डाका डालकर तेरा सर्वस्व हरण करके ले गए, तुझको भिखारी व दु:खी बना गए, उनका कारण तेरी अपनी ही कोई भूल है, कोई दूसरा नहीं। वह भूल, जिसके कारण कि त अनादि से इसी विकल्प सागर के थपेडे सहता चला आ रहा है। परन्त आज सौभाग्यवश तझे जो यह सम्बल दिखाई पड़ा है, अब इसको मत छोड़। उस अपनी भूल के कारण आज तुझे यह भी याद नहीं रहा कि जिसको अपने सामने देखकर तू भक्तिवश नत-मस्तक हो गया था, वह कोई और नहीं है, वही तेरा पुराना साथी है, जिसके साथ अपने पूर्व-भवों में प्रेम सहित तू खेला करता था तथा द्वेषवश जिसे तू चिड़ा-चिड़ाकर तंग किया करता था। स्पर्शन इन्द्रिय से संतप्त हो अनेकों बार जिसके शरीर को तूने खडडी पर बुना और भट्टी में पकाया। जिह्वा इन्द्रिय की मार को न सह सकने के कारण, जिसके शरीर को अनेकों बार तूने कोल्हू में पेला, छुरी से काटा, बन्दूक की गोली से छेदा और कढ़ाई में तला । नासिका-इन्द्रिय का दास हो जिसके शरीर को तूने अनेकों बार भभके में डालकर उबाला । नेत्र इन्द्रिय के द्वारा मूर्छित हो जिसके शरीर को तूने अनेकों बार भूसा भर-भरकर अपने कमरों को सजाया । कर्ण-इन्द्रिय से जीते गए तूने जिसके शरीर को अनेकों बार जन्त्री में से खींचा, छेदा व भेदा तथा और भी बहुत कुछ किया। वही मैं आज तेरे सामने इस रूप में विद्यमान हूँ। परन्तु घबरा नहीं, भय न कर, आज मैं तुझसे बदला लेने को नहीं आया हूँ, मेरे हृदय में अब किसी के प्रति भी द्वेष नहीं है, वे पहले की बातें अब मैं बिल्कुल भूल चुका हूँ, मुझ पर विश्वास कर । यदि पहले की भाँति द्वेषादि भाव बनाए रखे होता तो तुझे आज मुझमें इस शान्ति के दर्शन न हो पाते । यह शान्ति ही तुझे सच्चाई की गवाही देकर विश्वास दिलाने को पर्याप्त है । मैं किसी और देश का निवासी नहीं हूँ, उसी लोक का निवासी हूँ तथा था जिसका कि तू है । तू स्वप्न नहीं देख रहा है, जो देख रहा है वह सत्य है, परम सत्य।"
'परन्तु यह महान अन्तर कैसा? आप इतने शान्त और मैं वैसा का वैसा?' तेरे अन्तर में उत्पन्न होने वाला यह प्रश्न स्वाभाविक ही है क्योंकि अन्तर स्पष्ट है । इस अन्तर को देखकर यदि मेरी इस शान्ति में तुझे कुछ सार दिखाई देता है तो तू यह पूछ कि क्या किसी प्रकार तुझे भी यह प्राप्त हो सकती है? हाँ-हाँ, अवश्य हो सकती है । ध्यान-पूर्वक विचार, तेरे द्वारा बराबर बाधित किए जाने वाले नि:शक्त तथा बलहीन तेरे साथी ने अर्थात् मैंने जब उसे प्राप्त कर लिया तो इस ऊँची. सर्वसमर्थ तथा बद्धिशाली मनुष्य-अवस्था में स्थित क्या तेरे लिये इसका प्राप्त करना कठिन है? नहीं, तेरे लिये तो बड़ा सहज है। मुझको तो उपाय बताने वाला भी कोई नहीं था और तुझको तो मैं उपाय बता रहा हूँ, वही उप य जिसको मैंने अपने जीवन में अपनाया था। उसी उपाय का अनसरण करके अपने जीवन में मेरे कहे अनुसार कुछ फेर-फार कर, भूल व भ्रम को छोड़, धैर्य रख, साहस कर, आज ही से उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न कर । प्रत्येक जीव बराबर की सामर्थ्य नहीं रखता, किसी में शक्ति अधिक होती है और किसी में कम । यदि तुझमें शक्ति की हीनता है तो भी मत घबरा, बड़ा सहज उपाय बताऊँगा जिसको अल्प शक्ति का धारी भी कर सकता है। परन्तु एक बार ऐसा होने का लक्ष्य अवश्य बनाना होगा, जैसा कि मैं हूँ। ___लक्ष्य पूर्णता का होता है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्रम-पूर्वक । लक्ष्य एक क्षण में कर लिया जा सकता है परन्तु प्राप्ति शनै: शनै: हीनाधिक समय में होती है । लक्ष्य बनाने से जीवन में बाधा नहीं आती किन्तु उसकी सिद्धि के लिये जीवन में कुछ परिवर्तन लाना होता है। उपाय प्रारम्भ करने अर्थात् मार्ग पर प्रथम पग रखने से पहले लक्ष्य बना पूर्णता का, जीवन के उस आदर्श का जिसे कि तू मुझमें देख रहा है अर्थात् सर्व-संग विमुक्तता, निरीहता, अपरिग्रहता।
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