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३३. अपरिग्रह
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३. लक्ष्य-पूर्ति
लज्जा नहीं आती थी, परन्तु आज क्या ऐसा देख सकना आप गवारा कर सकते हैं ? नहीं । कारण कि १० वर्ष तक के बालकों में भी अब विकार उत्पन्न हो चुका है, आपके हृदय भी आज उतने पवित्र नहीं हैं। तभी तो आज नवजात शिशु को लंगोट लगाने की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु जिनका हृदय इन विकृत भावों से सर्वथा पवित्र हो चुका है तथा साम्यता का जिनके हृदय में वास हो चुका है, उन्हें लज्जा से क्या प्रयोजन?
तन के मैल को देखकर ग्लानि उत्पन्न होना भी तेरे मन का विकार है । जिनकी दृष्टि में शरीर की अपवित्रता प्रत्यक्ष भासती है, उन्हें स्नान करने से क्या प्रयोजन? विष्टा के घड़े को ऊपर से धोने से क्या लाभ? बाहर से इसका पवित्र होना असम्भव है। इस शरीर रूपी मन्दिर की पवित्रता तो इसके अन्दर बैठे देव की पवित्रता से है । यह सुगन्धित है उसकी सुगन्धि से अर्थात् आत्म-शान्ति, सरलता व साम्यता ही इसकी वास्तविक पवित्रता है। जो नित्य ही इस सद्गुणरूपी अनुपम गंगा में स्नान करते हैं उन्हें इस बाह्य स्नान से क्या प्रयोजन? यह शरीर जिनके लिये परिग्रह बन चुका है, इसमें जिनको पृथकत्व भासने लगा है, यह जिनको अपने लिये कुछ भार दीखने लगा है, वे उसकी सेवा में अपना समय व्यर्थ क्यों खोयें, स्नान के लिये जल आदि विषयक विकल्प द्वारा चित्त में अशान्ति क्यों उत्पन्न करें? उनको तो भोजन करना भी बेगार लगता है । वे बराबर उस समय की प्रतीक्षा में हैं जबकि वे निराहार रह सकें और इसीलिये महीनों महीनों के उपवास करके भी अपनी शान्ति से विचलित नहीं होते । इसी प्रकार अन्य अनेकों विकल्प भी खड़े नहीं रह सकते यदि शान्ति व वीतरागता में रंगी नग्नता का मूल्य समझ लिया जाय तो। इस नग्नता का मूल्य समझा था ऋषि भर्तृहरि ने, जो अभी तक यद्यपि दिगम्बर साधु नहीं हुये थे, पर शीघ्रातिशीघ्र वैसा होने की भावना करते थे।
२. लंगोटी भी भार-“लंगोटी रख लें तो क्या हर्ज है ? छोटी सी बात है, कोई विशेष हानि भी नहीं है? ऐसा प्रश्न उपस्थित हो सकता है। भाई ! तेरी दृष्टि शरीर को ही देख पा रही है, शान्ति पर वह अब तक नहीं पहुँच सकी है। यदि पहुँच पाती तो यह प्रश्न ही न होता। तू लंगोटी मात्र को न देखकर, देखता उस लंगोटी की रक्षा-सम्बन्धी विकल्पों को जो उसके होने पर चित्त में उत्पन्न हुये बिना नहीं रह सकते । इस सम्बन्धी वह कथा आप सबको याद है जिसमें एक लंगोटी की रक्षा के लिये साधु महाराज को पहले बिल्ली, फिर कुत्ता, फिर बकरी और फिर गाय बांधने की नौबत आई,
और गाय के एक खेत में घुस जाने पर महाराज को जेल के दर्शन करने पड़े । अन्य भी एक दृष्टान्त है उस साधु का जो घर-घर से एक-एक रोटी मांगकर खा लेते थे तथा इसी प्रकार अपना पेट भर लिया करते थे। हाथ में ही किसी से पानी मांगकर पी लेते थे परन्तु जिन्हें एक कटोरी रखना भी गवारा न था। एक भक्त के कहने पर उन्होंने बहुत सस्ती सी एलुमीनियम की एक कटोरी पानी पीने के लिये स्वीकार कर ली। एक दिन संध्या के समय जंगल में जाते समय कटोरी शिवालय के बाहर पड़ी रह गई, जिसकी याद उनको आई उस समय जबकि शिवालय से एक मील दूर बैठे वे संध्या कर रहे थे। बस फिर क्या था, संध्या सम्बन्धी शान्ति भंग हो गई, उसका स्थान ले लिया कटोरी सम्बन्धी विकल्पों ने । कोई उसे उठा ले गया तो ? हाय-हाय ! उनका चित्त रो उठा, संध्या छोड़ दी और दौडे हुये मन्दिर के द्वार पर आये, कटोरी वहीं पड़ी थी। बड़ा क्रोध आया अपनी भूलपर, यदि कटोरी न होती तो शान्ति काहे को भंग होती। अपनी भूल पर पछताये और कटोरी को तोड़कर फेंक दिया जिसके कारण कि उनकी शान्ति भंग हुई थी। भाई ! शान्ति का मूल्यांकन हो जाने पर ये सब वस्तुएँ यहाँ तक कि लंगोटी मात्र भी व्याकुलता का घर दिखाई देने लगती है, शान्ति की रक्षा करने के लिये वे सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं।"
३.लक्ष्य-पर्ति-परन्तु यह क्या? विचार-धारा में बहते हये स्वयं अपने को, मधर मस्कान के अलौकिक आकर्षण को तथा उन महात्मा के मस्तक पर प्रकटे तेज को भूलकर क्या सोच रहा है तू? भो चेतन ! कहाँ जा रहा है तू देख एक बार पुन: उसी दृष्टि से उस शान्त रस की ओर, और मिलान कर अपने अन्तरंग में प्रकटे इस तूफान के साथ उनके अन्तरंग में स्थित शान्ति-सुधासागर का। भावनाओं के आवेश में तूने क्या-क्या विचारा और व्याकुल चित्त हो अविवेक पूर्वक क्या-क्या कह डाला, परन्तु उधर वही शान्ति, वही मुस्कान, वही आकर्षण । तनिक भी तो बाधा नहीं पड़ी उधर, किञ्चित् भी तो क्षोभ या भय दिखाई नहीं देता उधर । निर्भीक, नि:शंक, निराकांक्ष, ग्लानि-रहित, निज-शान्ति में मग्न, वे अब भी मानो तेरी व्यथा पर करुणा करके अपने जीवन से प्रेरणा दे रहे हैं तुझे, शान्ति का रसास्वादन करने की ।
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