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३३. अपरिग्रह
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१. दिगम्बरत्व विश्व आगे बढ़ा जा रहा है, भारत में ऐसे फकीरों के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये। ये घृणा के पात्र हैं। भारत सरकार को अवश्य इनको काम पर लगाने का प्रबन्ध करना चाहिये । और इस प्रकार भक्ति, दया व घृणा के हिण्डोले में झूलता हुआ तू क्या कुछ नहीं सोच रहा है इनके सम्बन्ध में, पूर्ण अहिंसाधारी वीर के सम्बन्ध में?
परन्तु डर मत ! जिस नग्नता में तुझे कष्ट व दु:ख दिखाई दे रहा है, वहाँ दुःख है ही नहीं, वहाँ तो है शान्ति, विकल्पों का अभाव, इच्छाओं का निरोध, चिन्ताओं से मुक्ति । शान्ति के उस मधुर आस्वाद में, बाहर की इन तुच्छ बाधाओं की क्या गिनती? गरमी, सर्दी, बरसात, मच्छर, मक्खी, शरीर पर मैल आदि की बाधायें उसी समय तक बाधायें हैं जब तक कि शान्ति रस का आस्वाद आता नहीं। तेरे हृदय में उत्पन्न हुआ यह करुणा का भाव तेरे लिये ठीक ही है क्योंकि उस मधुर स्वाद की अनुपस्थिति में लौकिक जीवन की ये बाधायें स्वभावत: बड़ी दिखाई दिया ही करती हैं, परन्तु उनमें यदि शान्ति का स्वाद आने लगे तो ऐसा नहीं हुआ करता । सुगन्धि पर मस्त हुआ भंवरा क्या फूल के बन्द होने की बाधा को गिनता है उस समय? प्रकाश पर लुभायमान पतंग क्या अग्नि की दाह से घबराता है उस समय? मार खाते हुये भी क्या बिल्ली अपने पंजे में आये हुये चूहे को छोड़ देती है ? मैथुन सेवन के समय पर स्त्रीगामी मनुष्य उसके स्वामी की आवाज सुन लेने पर भी क्या उससे आने वाले भय को गिनता है ? किसी सौदे में बहुत बड़े लाभ का समाचार आने पर क्या तू टांग की पीड़ा से भय खाता है उधर जाने के लिये? कन्या के विवाह के अवसर पर क्या तुझे सर्दी या गरमी लगती है इधर-उधर दौड़ते हुये? तो भला इस अलौकिक स्वाद के वेदन में साक्षात् मग्न, उन्हें सर्दी-गरमी आदि बाधायें क्यों लगें? उनका भान भी होने नहीं पाता यहाँ। अत: उन पर तेरा करुणा-भाव निरर्थक है। तू भी इन बाधाओं से भय खाकर अपरिग्रहता से मत डर । इसमें से तुझे सुख व शान्ति मिलेगी दुःख नहीं।
नग्नता को देखकर तेरे अन्दर जो लज्जा-भाव प्रकट हुआ है, वह भी इस आस्वादन में निस्सार है। नग्नता में लज्जा को अवकाश उसी जगह है जहाँ मन के अन्दर विकार हो । मन विकृत होने पर नग्न रहने वाले को स्वयं लज्जा प्रतीत होगी और उसे देखने वाले को भी। परन्तु जहाँ लज्जा का स्थान शान्ति व साम्यता ने लिया, जहाँ पुरुष व स्त्रीपने का भेद दीखना बन्द हो गया, जहाँ मनुष्य, तिर्यंच, देव व नारकी में कोई भेद न रहा, जहाँ सर्वत्र निज जाति-स्वरूप चैतन्य का ऐश्वर्य दृष्टिगत होने लगा, जहाँ द्वैतभाव का विनाश हुआ, स्त्री व माता का भेद मिट गया, पिता व पुत्र एक दीखने लगे, एक ब्रह्म ही मानो सर्वत्र व्यापक रूप से. दीखने लगा, वहाँ कहाँ अवकाश है चित्त-विकार को तथा नग्नता-सम्बन्धी लज्जा को? साम्य-भाव के मन्दिर, रोम-रोम से शान्ति प्रवाहित करते, अपरिग्रहता के आदर्श-स्वरूप, उस नग्न शरीर को देखकर देखने वाले की दृष्टि उसकी नग्नता पर जाएगी ही क्यों? वह तो दर्शन करेगा उसमें अपनी इष्ट शान्ति के।
एक दृष्टान्त है, श्रीमदभागवत पुराण का। महर्षि वेदव्यासजी के पुत्र श्री शुकदेवजी आगर्भ-दिगम्बर थे, परम वीतरागी तत्वज्ञ थे। चले जाते.थे शून्य-चित्त । हृदय में था केवल एक ही भाव, शान्ति तथा समता । नदी के किनारे से गुजरे । कुछ स्त्रियें स्नान कर रही थीं वहाँ । पर उन्हें क्या? और वे स्त्रियें भी स्नान करती रही उसी प्रकार । न भय, न लज्जा । कुछ ही देर पश्चात् आये उनके पिता श्री वेदव्यास जी, सौ वर्ष के वृद्ध । स्त्रिये शर्मा गईं और प्रयत्न करने लगीं अपने शरीरों को ढांपने का । ऋषि ने पूछा, “हे माताओं ! अभी-अभी मेरा २५ वर्षीय युवक पुत्र गुजरा, तब तो तन ढांपने की चिन्ता नहीं की तुमने और अब मैं इतना वृद्ध व्यक्ति गुजरा तो इस प्रकार सकुचा गई हो तुम?" स्त्रियों ने उत्तर दिया, “क्षमा कीजिए भगवन् ! आपसे लज्जित होने का कारण स्वयं आपके चित्त में छिपा वह विकृत भाव है, जिसके आश्रय पर आपने हमारी ओर लक्ष्य करके हमारी लज्जा को ताड़ लिया और आपके पुत्र से लज्जा न करने का कारण उसके चित्त की वह शून्यता है जिसके कारण वह सम्भवत: यह भी न जान पाया कि उसके अतिरिक्त यहाँ और भी कोई है।"
दूसरे ढंग से भी, क्या आपने स्वयं आज से ५० वर्ष पूर्व १० वर्ष तक के नग्न बालकों को उस ही अवस्था की नग्न बालिकाओं के साथ खेलते नहीं देखा है ? उस समय उन बालक-बालिकाओं को तथा आपको भी नग्नता देखकर
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