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३३. अपरिग्रह
१. दिगम्बरत्व; २. लंगोटी भी भार; ३. लक्ष्यपूर्ति; ४. अपरिग्रहता साम्यवाद; ५. आंशिक अपरिग्रहता; । ६. परिग्रह स्वयं दुःख; ७. अपरिग्रहता स्वयं सुख।
१. दिगम्बरत्व-भवार्णव के सन्ताप से विह्वल हुआ मैं, आज परम सौभाग्य से शान्ति के प्रतीक वीतरागी गुरुओं की शीतल शरण को प्राप्त करके, अपने को धन्य मानता हूँ, सन्तुष्ट व कृतकृत्य अनुभव करता हूँ, मानो आज मुझको गुरुओं का वह प्रसाद प्राप्त हुआ है जिसकी खोज में कि मैं कहाँ-कहाँ नहीं भटका ? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा हरितकाय के शरीर में रह-रहकर मैंने जिसकी खोज की; लट, चींटी, मक्खी , गाय, कबूतर, मछली आदि के शरीर
रहकर जिसकी मैंने खोज की, अनन्त बार मनुष्यों के शरीर में रह-रह कर जिसकी मैंने खोज की और देवों के शरीरों में रह-रहकर जिसकी मैंने खोज की; परन्तु इतना करने पर भी जिसे मैं न पा सका, आज उसे पाने की पूर्ण आशा है। यह आज अकस्मात् ही मैं कहाँ आ गया हूँ, किनको देख रहा हूँ अपने सामने ? शान्त छवि धारण किये, रोम-रोम से शान्ति का प्रसार करने वाले ये कौन हैं ? एक मधुर व शान्त मुस्कान के द्वारा मेरा हृदय मुझसे छीनने का प्रयत्न करने वाले ये कौन हैं? धागे का एक ताना मात्र अपने शरीर पर न रखते हुये भी अत्यन्त प्रसन्नचित्त ये महात्मा कौन हैं? किस देश के वासी हैं ये? कैसा विचित्र है जीवन इनका, कैसी आकर्षक है आभा इनकी? यह सब स्वप्न तो नहीं? नहीं, पुन: पुन: आँखें मल-मलकर देखने पर भी ये वही तो हैं । धोखा नहीं सत्य है यह, परम सत्य।
ये हैं वे योगी, जो राज्य-घरानों में पले, जिन्होंने कभी मखमल के गद्दों से पाँव नीचे नहीं उतारा, जिनको धान का एक तुषमात्र भी बिस्तर पर पड़ा न सुहाया, जो रत्नों के प्रकाश में पले, परन्तु आज? कुछ दुःखी से लगते हैं, तुझे, कुछ निर्लज्ज से प्रतीत होते हैं तुझे, कुछ असभ्य से प्रतीत होते हैं तुझे? इस नग्न शरीर पर अग्नि बरसाती तथा वनों में दावाग्नि उत्पन्न करती ज्येष्ठ की लू व धूप, पोष माघ की सर्दी का बड़े-बड़े वृक्षों को फूंक डालने वाला तुषार, बरसात का मूसलाधार पानी, सैंकड़ों मच्छरों के तीखे डंकों द्वारा एकदम किया गया प्रहार, मक्खियों की अठखेलियों के कारण होने वाला उत्पात आदि सब प्राकृतिक प्रकोपों को सहने के कारण, अरे रे ! इनका सा दुःखी आज कौन है? शरीर पर जमी मैल बता रही है कि वर्षों से स्नान भी सम्भवत: इन्होंने किया नहीं। इस मैल के कारण उत्पन्न हुई खाज से अवश्य ही व्याकुल हो रहे होंगे ये? घरबार के बिना खुले आकाश के नीचे, बीहड़ वनों में भयानक जन्तुओं की चीत्कार से इनको अवश्य भय लगता होगा? पेटभर खाने पीने के लिये भी तो इनके पास कोई साधन नहीं। अरे रे ! कितने दुःखी हैं बेचारे । चलूँ इनसे पूछू तो सही कि क्या चाहिये इन्हें ? आज मैं सर्व समर्थ हूँ, जो चाहिए दूँ। मैं इन्हें इस दशा में देख नहीं सकता। दया से मानो हृदय पिघलकर बह निकला है मेरा।
“और फिर नंगे-धडंगे, स्त्रियों के बीच में इस प्रकार बैठे रहना. नगर में विहार करते हय नग्न-रूप में इस स्त्रियों के सामने से निकलना, बिना स्नान के मैला-कुचैला रहना, कुछ अच्छा भी तो नहीं लगता। कोई क्या विचारेगा? नहीं, नहीं यह पुरुषों का अपमान है, यह मनुष्य मात्र के नाम पर कलंक है, मैं यह सहन न कर सकूगा, इन्हें मेरी बात माननी ही होगी। यदि इनके पास कुछ नहीं है तो मैं इनकी आवश्यकताओं को पूरी करूँगा। अरे ! परन्तु इनसे यह तो पूछु कि ये कौन हैं, और यहाँ खाली बैठे क्या करते हैं ? पुरुष का महत्व पुरुषार्थ से है । इस प्रकार खाली बैठे रहना ही यदि इनका लक्ष्य है, तो अवश्य यह जीवन में आवश्यक तथा योग्य व्यापार-धन्धे के कर्त्तव्य से पराङमुख होकर. परुषार्थ से घबराकर भागा हआ कोई नपंसक है। इतनी कायरता? परुष का रूप धारे क्या इसे इस कायरपने से लज्जा नहीं आती? तू कहाँ तक सहायता करता फिरेगा ऐसों की जो अपने कर्तव्य को भूले हैं। ये मनुष्य तो हैं ही नहीं पर तिर्यंच भी नहीं हैं । पृथ्वी के ऊपर भार हैं, देश के कलंक हैं। इनको अवश्य कुछ न कुछ करना चाहिये । स्वयं न करे तो भी इन्हें बलात् करना पड़ेगा। अपाहिज भी तो नहीं है, हृष्ट-पुष्ट शरीर और फिर यह हालत? आज जबकि
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