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________________ ३२. साधु धर्म २२७ १२. महिमा क्यों ? घबरा गया सुनते-सुनते ? सम्भवत: विचारता हो कि इतने कष्ट का जीवन कैसे बिताते होंगे वे और यदि मुझे भी कदाचित् करना पड़ा तो कैसे कर सकूँगा मैं ? परन्तु घबरा नहीं; तू भी उसी सिंह की सन्तान है । जब तक बढ़ता हुआ स्वयं नहीं पहुँच जाता वहाँ तब तक ही घबराहट है, वहाँ पहुँचने के पश्चात् आनन्द ही आनन्द, शान्ति ही शान्ति । भला विचार तो सही कि वे भी तो मनुष्य ही हैं तेरे जैसे, उनका भी तो शरीर है चाम-हाड़ का ही, न कि लोहे का। कष्ट हुआ होता तो कैसे टिक पाते वहाँ ? रणक्षेत्र में अपने शत्रु को पीछे धकेलते क्षत्रीय-योद्धा के शरीर में अनेकों बाण लगे हों, लहू बह रहा हो परन्तु उस समय उसको पीड़ा होती है क्या ? यह योगी तो है अलौकिक वीर, उपरोक्त सर्व उपसर्ग व परीषह सहने में उसे कष्ट क्यों होने लगा, वह उनसे क्यों डरने लगा ? शान्ति-रसपान में मग्न चला जा रहा है वह। QuN “रूपातीत शुक्ल ध्यान में स्थित नीरंग, निस्तरंग, शून्य चित्त ध्यानस्थ साधु ।” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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