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________________ ३२. साधु धर्म २२६ १२. महिमा परन्तु पागल से दीखने वाले इस योगी को क्या परवाह है इनकी ? काबू जो पा लिया है उस वीर ने इन पर । पग-पग पर उनसे सावधान होकर चला जा रहा है वह ? और यदि कदाचित् कुछ आगे बढ़ने का प्रयत्न भी करें वे, कुछ बन्दर-भभकी भी दिखावें वे, तो टूट पड़ता है वह पागल उन पर लेकर बारह अनुप्रेक्षाओं का कोड़ा। सब कुछ सहन कर सकता है वह परन्तु शान्ति में बाधा नहीं, उस शान्ति में जिसकी उपासना के पीछे पागल हुआ भटक रहा है वह. जिसकी प्रगति के लिए इतना उग्र पुरुषार्थ साधा है उसने । किसी मूल्य पर भी अपनी आदर्शभूत मधुर मुस्कान का विरह सहन नहीं कर सकता वह । उसका सकल पुरुषार्थ, उसका सकल पराक्रम चलता है उस संस्कार पर, जिसके पाले पड़ा हुआ है सारा जगत । भला कौन योद्धा है जो जीत सके उसे? अपने को बड़ा बली और वीर योद्धा मानने वाला भी किसी का मात्र कट् शब्द सुन लेने पर अपने अन्दर में उठे क्रोध को दबा सकेगा क्या? किसी सुन्दर र स्त्री के द्वारा फैंके हुए एक तीखे कटाक्ष के प्रहार को सहन कर सकेगा क्या? विह्वल हो उठेगा उसी समय वह । क्रोध के आधीन हो भूल जायेगा अपने को, या मैथुन-संस्कार का मारा लगेगा तड़पने, पानी से बाहर निकाल कर डाली गई मछलीवत् और पता चल जायेगा उसे कि कितना बड़ा वीर है वह, कितना बड़ा योद्धा है वह । हवा खाने चला जायेगा उसका सर्व पराक्रम, उसका सर्व वीरत्व, जिस पर था उसे इतना घमण्ड। खिल्ली उड़ा रही होगी उस समय सामने खड़ी उसके अन्तर-संस्कार की शक्ति कि “बस ! हो गए दम-खतम इतने में ही, जा चूड़ियाँ पहनकर घर में बैठ जा, यह तो बहुत छोटा सा आक्रमण था तेरे ऊपर , इसी से रो पड़ा? नपुंसक कहीं का।" । वीरत्व देखना है तो देखो उस सामने बैठे नंगे-धडंगे योगी की ओर, जिसके शरीर की हड्डी-हड्डी दीख रही है, एक थप्पड़ को भी सहन करने की शक्ति सम्भवत: जिसमें नहीं है। उपरोक्त छोटी-छोटी बातों से तो क्या यदि लोक की सर्व विकारी शक्तियाँ भी एकत्रित होकर आ जायें, तो उसके मुख-मण्डल पर फैली आभा, तेज, मुस्कान तथा शान्ति को बाधित करने में समर्थ न हों, उसके अन्दर में क्रोध या मैथुन-भाव की विह्वलता उत्पन्न करने में समर्थन हों। गृहस्थ श्रावक के विविध सोपानों का धीरे-धीरे अतिक्रम करते हए अभ्यासवश परिवद्ध हो गई उनकी शक्ति. प्रकट हो गया है उनका वीरत्व । शरीर को भी अपना दास बना लिया है आज उन्होंने, उस शरीर को जिसका दास बना हुआ है सारा जगत । सिंह-वृत्ति धारकर ग्राम-ग्राम विचरण करते हैं वे, बिल्कुल अपरिचित वातावरण में जाकर रहते हैं वे, क्षुधादि बाधाओं तथा पीड़ाओं को भी कुछ गिनते नहीं हैं वे, सकल लोक-लाज को छोड़कर द्वार-द्वार से भिक्षा माँगते हैं वे, अनेकों द्वारों पर धुत्कारों से स्वागत किया जाता है उनका पर माथे पर बल नहीं पड़ने देते वे। अति महान है उनकी करुणा । भले महीने भरके भूखें हों, परन्तु दातार के द्वार पर यदि कदाचित् खड़ा दिखाई दे जाये कोई कुत्ता या कोई अन्नार्थी तो तुरन्त लौट आते हैं उसके द्वार पर से, इसलिए कि कहीं मेरे प्रति उपयुक्त हो जाने के कारण वह दातार इन बेचारों को सूखा ही न टाल दे। इनका पेट काटकर खाना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं। इसके अतिरिक्त कदाचित् यह सन्देह हो जाए कि इस दातार ने भक्तिवश मेरे निमित्त अपनी बिसात से अधिक कुछ किया है, तो भी चुपके से बना बनाया छोड़कर लौट आते हैं वे वहाँ से, इसलिए कि मेरे निमित्त अनावश्यक भार पड़ा है उस पर । कोटि जिह्वा भी समर्थ नहीं इन महर्षियों के पराक्रम का बखान करने के लिये । कभी ध्यानस्थ होकर निश्चल बैठ जाते हैं वे सर्दी की कड़कड़ाती रातों में नदी किनारे, कभी ज्येष्ठ की चिलचिलाती दोपहरियों में जा बैठते हैं वे पर्वत के शिखर पर, और कभी बरसात की मूसलाधार वर्षा में वृक्ष के नीचे; केवल इसलिए कि शरीर सुख-प्रिय न हो जाय कहीं उनका । शारीरिक ही नहीं मानसिक बाधाओं को भी तुच्छ समझते हैं वे । भले ही कोई गाली दे उन्हें, या करे उनका तिरस्कार, या उपसर्ग करे उनके शरीर पर, तो भी शाप नहीं देते वे उन्हें; विपरीत इसके कल्याण की भावना भाते हैं उनके प्रति । अनेक ऋद्धियों के स्वामी होते हुए भी प्रतिकार करने का प्रयत्न नहीं करते वे उनका। भले ही कठिन तपश्चरण करने के उपरान्त ज्ञान की वृद्धि न हो पावे उन्हें, परन्तु यह विकल्प उदित नहीं होने देते वे अपने मन में कि 'देखो अमुक व्यक्ति तो बिना तपश्चरण किए ही अथवा अल्पमात्र तपश्चरण करके ही, इतना अधिक विद्वान तथा मत्कारी हो गया और इतना उग्र-तपस्वी या धैर्यवान होते हए भी मैं अब तक वहाँ का वहाँ ही हूँ।' सबके प्रति सदा कल्याणमय आशीर्वचन निकलते हैं उनके मुख से। तथा इसी प्रकार अन्य भी अगणित गुण, जिन्हें कहने के लिए मैं समर्थ नहीं । ऐसे परम पवित्र त्यागी हैं पागल से दीखने वाले वे नंग-धडंग बाबा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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