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३२. साधु धर्म
१२. महिमा क्या है, फिर भी इसके प्रति राग क्यों, ७. इस तुच्छ मात्र वस्तु के कारण क्यों नित्य-निरन्तर पुण्य-पापरूप अपराधों के चक्कर में पड़ा हुआ हूँ, ८. इस अपराध या आश्रव से अब बस हो, ९. जिस-किसी भी प्रकार इस अपराध को प्रेरणा देने वाले संस्कारों का विच्छेद हो, १०. बाह्य जगत रूप अथवा अभ्यन्तर जगत रूप ये तीनों लोक परमार्थत: असत्य हैं, अभूतार्थ हैं, ११. कोई भी वस्तु यहाँ ऐसी नहीं जो अनन्तों बार तूने ग्रहण कर-करके न छोड़ दी हो । अत: सभी कुछ सुलभ है, दुर्लभ यदि है तो केवल एक बात और वह है तात्त्विक विवेक । उसी की प्राप्ति में सकल पुरुषार्थ उण्डेल दे, इसी में कल्याण है, १२. यही है तेरा परम कर्तव्य और यही है तेरा स्वभाव या धर्म । इस प्रकार बारह भावनाओं का पुन:-पुन: चिन्तन करते रहना अनुप्रेक्षा कहलाता है, जिसका विस्तार आगे ४५ वें अधिकार में किया जाने वाला है।
९. परिषह जय-परीषह का अर्थ है 'परि+सह' अर्थात् हर प्रकार से सहन करना । कष्ट-सहिष्णुता अथवा तितिक्षा-भाव का नाम ही है परीषह-जय । जीवन में और विशेषत: निराश्रय वृत्तिवाले साधु के जीवन में पग-पग पर अनेकविध पीड़ाओं का मिलना स्वाभावकि है। कभी भूख-प्यास की पीड़ा तो कभी सर्दी-गर्मी की अथवा डांस, मच्छर, मक्खी आदि की पीड़ा; कभी नग्नता की लाज तो कभी रागद्वेष जनित अन्तर्दाह; कभी स्त्री आदि विषयक भोगाभिलाष की जागृति तो कभी अविवेकी जनों के द्वारा प्राप्त अपमान तथा तिरस्कार; कभी बैठने, उठने व सोने की बाधा तो कभी भिक्षा-वृत्ति में प्राप्त लाभालाभ और धुत्कारें; कभी काँटा आदि चुभने का कष्ट तो कभी देह के मैलेपन का अथवा पसीने आदि का दुःख, कभी बुद्धिहीनता की अथवा अल्पज्ञता की चिन्ता तो कभी ऋद्धि-सिद्धियों का लोभ अथवा इन कमियों के कारण धर्म-कर्म छोड़ बैठने की भावना । कहाँ तक कहा जाए, अनन्तों हो सकती हैं पीड़ायें, कुछ दैहिक और कुछ मानसिक । सबको समता-भाव से सहन करते हैं वे, उनका प्रतिकार करने की भी भावना उदित नहीं होने देते वे अपने अन्दर । इस विषय का विस्तार भी आगे ४५वें अधिकार में किया जाने वाला है।
१०. चारित्र-जैसा कि दर्शन-खण्ड में बताया जा चुका है, चारित्र का अर्थ है समता। हर परिस्थिति में समता पूर्वक विचरण करते रहना ही अब इनका स्वभाव बन गया है, जिसके लिये अब इनको विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं, इसलिए कहलाता है यह 'सामायिक चारित्र' । श्रावक अवस्था में जिसका प्रतिज्ञाबद्ध होकर अभ्यास करते थे, वही यहाँ आकर बन जाता है उनका स्वभाव और यही धीरे-धीरे परिवृद्ध होता हुआ बन जाता है यथाख्यात अर्थात् अपने तात्त्विक स्वभाव के बिल्कुल अनुरूप । यहाँ आकर समाप्त हो जाती है साधना, पूर्ण हो जाता है योगी, जीवन्मुक्त हो जाता है वह । इसका कथन भी आगे ४६ वें अधिकार में किया जाने वाला है।
११. तप-तप का कथन पहले किया जा चुका है परन्तु वह था गृहस्थ के योग्य केवल उसका सामान्य विवेचन । यहाँ आकर विशेषता को प्राप्त हो जाता है वह, बाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भागों में विभक्त हो जाता है वह । बाह्य में अनशन, ऊनोदरी, रस-परित्याग, एकान्तवास तथा आतापन-योग आदि विविध प्रकार के कायक्लेश; और भीतर में प्रायश्चित, विनय वैयावृत्त्य अर्थात् गुरुजनों की सेवा, स्वाध्याय, देहोत्सर्ग और ध्यान । संस्कार-विच्छेद के लिए इन सभी का यथावसर सेवन करते हैं वे, और अत्युग्र रूप में सेवन करते हैं वे। इसका विस्तृत विवेचन आगे 'उत्तम-तप' नामक ४० वें अधिकार में आने वाला है।
१२. महिमा-कौन कर सकता है वर्णन साधु की महिमा का। भले ही अज्ञानीजन समझते रहें उन्हें नङ्ग-धड़ङ्ग निर्लज्ज और करते रहें चर्चा परस्पर में उनके पागलपन की; भले उत्पन्न होते रहें उनके मन में ग्लानि, घृणा, लज्जा अथवा दया के भाव उनकी नग्नता के प्रति, उनके मैले-कुचैले शरीर के प्रति, उनकी अस्नान, अदन्त-धोवन आदि अव्यवहारिक वृत्तियों के प्रति; परन्तु ज्ञानीजन जानते हैं उनकी महिमा । भर्तृहरि जैसे विरागी ऋषि भी भावना भाते हैं जिसकी
एकाकी निस्पृहः शान्त: पाणिपात्रदिगम्बरः ।
कंदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मलनक्षमः ॥ "हे शम्भो ! वह कौन सा शुभ दिन होगा जबकि मैं भी इसी प्रकार एकाकी, निस्पृह, शान्त तथा हाथ में रखवाकर आहार करने वाला दिगम्बर साधु होकर वन-वन विचरूँगा, और सकल कर्मों को अथवा संस्कारों को निर्मूल करने के लिये समर्थ हूँगा”, उन संस्कारों को जो कि स्पष्ट प्रतीत हो रहे हैं उन्हें उपनी शान्ति के बाधक, अपने शत्रु ।
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