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३२. साधु धर्म
८. अनुप्रेक्षा
पँचेन्द्रिय-जय, पँचमहाव्रत, पँचसमिति, छः आवश्यक और सामान्य परिचय में कथित नग्नता आदि सात बाहरी क्रियायें, इस प्रकार २८ मूल-गुणों के धारी वे बराबर बढ़ते जाते हैं आगे ही आगे, उस समय तक जब तक कि संस्कारों का मूलोच्छेद करके इनके बन्धन से मुक्त नहीं हो जाते वे । इनके अतिरिक्त जो तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, पँच चारित्र और बारह तपों का निर्देश किया गया है, अब उनका कथन किया जाता है ।
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६. गुप्ति – मन, वचन, व काय को पूर्ण नियन्त्रित रखने का नाम 'गुप्ति' है। वास्तव में इसकी पूर्णता भी ध्यानस्थ अवस्था में ही सम्भव है, जहाँ शरीर निश्चल, वचन से मौन, मन से अन्तर्जल्परूप क्षोभ का अभाव और शान्ति में एकाग्रता पाई जाती है । परन्तु वहाँ से हट जाने पर वह योगी बराबर यह प्रयत्न रखता है कि १ – “ शरीर को हिलाने-डुलाने का काम न करूँगा, यदि करूँगा तो थोड़ा करूँगा और वह भी समिति में बताये अनुसार यनाचार पूर्वक करूँगा। 2- मौन से रहूँगा, यदि बोलना पड़ा तो थोड़ा बोलूँगा और उसमें भी शान्ति व स्व- परहित सम्बन्धी बात ही बोलूँगा, वह भी निष्प्रयोजन न बोलूँगा, प्रयोजनवश भी अत्यन्त मिष्ट भाषा में बोलूँगा । ३ - मन के द्वारा केवल निज शान्ति के अतिरिक्त कुछ न सोचूँगा, यदि सोचना पड़ा तो अधिक देर तक नहीं सोचूँगा, बीच-बीच में लौटकर पुनः पुनः शान्तिको स्पर्श करता रहूँगा। कुछ देर सोचने में भी लौकिक विकल्प न आने दूंगा, शान्ति की प्रेरणा-सम्बन्धी विकल्प ही आने दूंगा" इत्यादि । इस प्रकार हमारी भाँति मन, वचन व काय के आधीन न रहकर उनको अपने आधीन बना लेते हैं वे । जो काम वे चाहेंगे वही उन तीनों को करना पड़ेगा। जो वे नहीं चाहेंगे उसे वे न कर सकेंगे और जो वे तीनों कहेंगे उसे वे (साधु) नहीं करेंगे। हमारी भाँति वे योगी उनके दास नहीं होंगे बल्कि वे तीनों ही होंगे उनके दास और इसलिये वे योगी कहलाते हैं त्रिगुप्ति- गुप्त । कितना महान है उनका पराक्रम व बल
७. धर्म - यद्यपि समता के अभ्यास द्वारा क्रोध, मान, माया लोभ इन चार प्रधान कषायों को अत्यन्त क्षीण कर दिया है उन्होंने और उसी प्रकार पञ्च महाव्रतों की साधना द्वारा असत्य आदि की प्रवृत्तियें भी प्रायः समाप्त हो गई हैं। उनकी । यदि कदाचित् संस्कारवश ये दोष थोड़ा-बहुत सर उभारने का प्रयत्न भी करें तो वह इतना धुन्धला तथा शक्ति हीन होता है कि किसी को यह पता चलने नहीं पाता कि इनमें झलकमात्र भी शेष है उनकी । अर्थात् उनकी शारीरिक, वाचिक अथवा मानसिक किसी भी क्रिया में उनका स्पष्ट आभास नहीं होता । शान्ति-स्वरूप समता हस्तगत हो गई है उन्हें । आत्मा का स्वभाव होने के कारण यही कहलाता है धर्म, जिसके दस अंग हैं, जो कि सहज प्रकट हो जाते हैं उनमें। इनके नाम हैं— क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य क्रमशः हिंसा आदि पञ्च पापों के विरोधी हैं; और तप है निर्जरा के अर्थ की जाने वाली कठोर साधना, इन दोनों भागों के
मध्य में स्थित है।
ये दस धर्म पृथक्-पृथक् कुछ हों, ऐसा न समझना। एक ही धर्मात्मा के दस लक्षण हैं ये अथवा उसके समतामयी भाव का विश्लेषण मात्र हैं यह । इसी कारण इनको दस-धर्म न कहकर 'दस - लक्षण - धर्म' कहा जाता है, अर्थात् दस-लक्षणों या अङ्गों वाला एक अखण्ड- धर्म, भगवान आत्मा का एक अखण्ड-स्वभाव । यद्यपि उत्कृष्ट रूप से ये परिणाम अन्तर्मुखी साधु-जनों को ही वर्तते हैं, तदपि गृहस्थ जीवन में इनका सर्वथा अभाव हो ऐसा नहीं है । अत: भले ही गृहस्थ अथवा श्रावक-धर्म में इनका उल्लेख न किया हो, तदपि यथोचित रूप में वहाँ भी इन्हें अपनी ओर से लागू कर लेना चाहिये । अर्थात् पूर्वोक्त क्रियाओं के अतिरिक्त आप भी इन्हें यथाशक्ति अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करें । अशान्ति से आपकी रक्षा करने के लिए ये विशेष रूप से आपके सहायक होंगे। इन दसों भावों के साथ 'उत्तम' विशेषण लगने से इनका महत्त्व बहुत अधिक हो जाता है क्योंकि यह शब्द इन धर्मों के वाच्यार्थ को बाह्य लोक से उठाकर अन्तरङ्ग लोक में ले जाता है । इन दसों धर्मों का विस्तृत विवेचन आगे स्वतन्त्र अधिकारों में किया जाने वाला है ।
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८. अनुप्रेक्षा- वैराग्य के संरक्षण अथवा उसकी परिवृद्धि के अर्थ संसार, देह, भोगों में निस्सारता देखते हुए, तद्विषयक कुछ तात्त्विक चिन्तवन करने का नाम अनुप्रेक्षा है । १. ये सभी वस्तुयें अनित्य हैं, २. अशरण हैं, ३. जन्म-मरण में अथवा संकल्प विकल्पों में नित्य संसरण कराने वाली हैं । ४. धन, स्त्री, कुटुम्ब आदि कोई तथा कुछ भी यहाँ मेरा नहीं, ५. अकेला ही आया हूँ और अकेला ही जाना पड़ेगा, ६. शरीर से अधिक अशुचि इस जगत में अन्य
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