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३२. साधु धर्म
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५. षड्-आवश्यक १. उपरोक्त सकल शारीरिक क्रियायें करते हुए सदा अपने भीतर ही देखते रहते हैं वे और अपनी दृष्टि को इधर-उधर भटकने नहीं देते । यदि संस्कारवश वहाँ से भटक कर बाहर आ भी जावे तो सदा पृथ्वी की ओर ही लखाते हैं, दिशाओं में नहीं। चार हाथ आगे देखकर चलते हैं ताकि कोई चींटी आदि छोटा जन्तु पाँव के नीचे आकर या शरीर के किसी भी अंग से आघात पाकर मर न जाये, पीड़ित न हो जाय। यहाँ तक कि मार्ग में कुछ प्राणी ऐसे बैठे हों जो उनके अकस्मात निकट पहँचने पर डर कर भागने लगें. तो उस मार्ग को ही छोड़ देते हैं वे।
२. किसी भी वस्तु को उठाते-धरते हुए उस वस्तु को तथा स्थान को कोमल पिच्छी से अच्छी तरह शोध या झाड़कर ही रखते उठाते हैं वे; ताकि कोई छोटा जन्तु, जो उस स्थान पर या वस्तु पर उस समय बैठा हुआ होना सम्भव है, मर न जाय या पीड़ित न हो जाय।
३. मल-मूत्र क्षेपण करते समय भी यत्न बराबर बना रहता है उन्हें, और इस लिए किसी गुप्त तथा साफ स्थान में ही अच्छी तरह देखकर या शोध-झाड़कर मलक्षेपण करते हैं वे, नाली आदि में नहीं, क्योंकि ऐसे गन्दे स्थानों में बड़ी जीव-राशि पड़ी हुई होती है, जोकि उस मल से मर जानी या बाधित हो जानी सम्भव है।
४. गमनागमन की, उठाने-धरने की तथा मल-क्षेपण की क्रियाओं के अतिरिक्त, उपदेश देते समय या अपने किसी शिष्य से या अन्य साध से बात करते समय भी यत्नाचार बराबर बना रहता है उन्हें कि उनके मख से कोई भी शब्द ऐसा न निकलने पाए जो कि श्रोता के लिए अहितकारी हो अथवा उसे कुछ बुरा लगे।
५. भोजन ग्रहण करते समय भी बराबर यह यत्नाचार वर्तता है कि भोजन किसी ऐसी वस्तु से अथवा किसी ऐसी रीति से न बनाया गया हो जिसके कारण किसी छोटे या बड़े जीव को पीड़ा पहुँची हो अथवा पहुँचने की सम्भावना हो, या भोजन लेने से किसी अन्य की उदर-पूरणा में बाधा आने की सम्भावना हो, अथवा उनके लिए भोजन बनाने में दातार पर कोई अनावश्यक भार न पडा हो इस प्रकार उत्कष्ट यत्नाचार में प्रवत्त रहते हए उनका जीवन है पर्ण-व्रती. पर्ण-संयमी।
५. षड्-आवश्यक-यह तो हुई शरीर व इन्द्रियों को वश में करने की बात परन्तु मन के प्रति भी असावधान नहीं हैं वे। उसे जीतने के लिये अर्थात् उसे जहाँ तक हो सके अधिकाधिक समय तक अक्षुब्ध रखने के लिये नित्य प्रयास करते रहते हैं वे।१-निश्चित-रूप से दिन में तीन बार सामायिक करते हैं वे, रात को बीच-बीच में जागकर समताभाव जागृत रखने का विचार करते हैं वे, दिन में तीन अवसरों के अतिरिक्त भी अनेकों बार उसी प्रकार के विचार करते रहते हैं, यहाँ तक कि चलते-चलते तथा भोजन करते हुए भी अनेकों बार शान्ति में तन्मय हो जाते हैं वे । जीवन की अन्य प्रवृत्तियों में दुःख-सुख, वन्दक-निन्दक आदि इष्टानिष्ट द्वन्द्व तथा राग-द्वेष न करके साम्यता को ही धारण किये रहते हैं वे, शान्ति को भङ्ग नहीं होने देते वे । २, ३-इस शान्ति में लगने वाले दोषों के लिये अर्थात् राग आ जाए तो उसके लिये सदा आत्मग्लानि पूर्वक अपनी निन्दा करते हैं वे । शान्ति के आदर्श प्रभु की दिन में तीन बार नियम से तथा अन्य भी अनेकों बार शान्त-रस में तल्लीन रहने के लिये स्तुति व वन्दना करते रहते हैं वे। ४–बाहर में दीखने वाले स्थूल दोष उन्हें प्राय: लगते नहीं। कदाचित् अन्तरंग में रागादि के कारण कोई सूक्ष्म-दोष लग जावे तो उस पर मन में खेद करते हैं वे तथा आगे को उनके प्रति सावधानी रखने की प्रतिज्ञा करते हैं अर्थात् प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान करते हैं वे। ५-शेष समय जो बचे उसमें अपने अन्तष्करण का अध्ययन करते रहते हैं अर्थात बराबर मन के प्रति जागते रहते हुए यह देखते रहते हैं कि कहाँ-कहाँ घूम रहा है तथा क्या-क्या विचार रहा है यह । यही उनकी स्वाध्याय है। ६–सामायिक आदि उपर्युक्त क्रियायें करते हुए दिन में या रात्रि को शरीर के प्रति अत्यन्त उपेक्षित होकर, इसकी बाधाओं तथा पीड़ाओं को न गिनते हुए यथाशक्ति कुछ समय के लिये इसे काष्ठवत् त्याग देने का अभ्यास करते हैं वे। घण्टों खड़े रहते हैं या बैठे रहते हैं निश्चेष्ट, अन्तरङ्ग में अपने वास्तविक देह के दर्शन करते हुए। यह कहलाता है कायोत्सर्ग। इन क्रियाओं में सदा तत्पर रहते हैं वे। ये छ: क्रियायें उन्हें पर वश होने से बचाती हैं अर्थात् उनमें राग-प्रवेश के लिये अवकाश आने नहीं देती, इसलिये अत्यन्त आवश्यक समझी जाती हैं और ‘षड्-आवश्यक' संज्ञा को प्राप्त होती हैं।
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