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३२. साधु धर्म
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४. समिति
'उत्तम संयम' नामक ३९ वें अधिकार में, सत्य का 'उत्तम सत्य' नामक ३८ वें अधिकार में, अचौर्य का 'उत्तम-त्याग' नामक ४२ वें अधिकार में, ब्रह्मचर्य का 'उत्तम ब्रह्मचर्य' नामक ४४ वें अधिकार में और अपरिग्रह का 'उत्तम
आकिंचन्य' नामक ४३ वें अधिकार में किया जाने वाला है। इस व्रत की साधु-धर्म में प्रधानता होने के कारण आगे 'अपरिग्रहता' नामक एक पृथक् अधिकार भी दिया गया है । यहाँ केवल इतना मात्र उल्लेख कर देना पर्याप्त है कि इन पाँचों महाव्रतों की रक्षा के लिए साधु अपनी शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाओं का किस प्रकार सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं।
अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए वे अपने मन में किसी के प्रति भी कोई अनिष्ट विचार आने नहीं देते, जिह्वा को किसी के प्रति अहितकारी शब्द, अनिष्ट अथवा कटुक-शब्द, मर्मच्छेदी अथवा व्यङ्ग का शब्द बोलने नहीं देते और शरीर को समितिरूप यत्नाचार में कभी प्रमाद करने नहीं देते । अर्थात् गमनागमन आदि सभी क्रियायों में बड़ी सावधानी तथा यलपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं वे। सत्य व्रत की रक्षा के लिए न तो मन में किसी के प्रति क्रोध जागृत होने देते हैं वे, न लोभ, न राजा आदि का भय
का उपहास करने का भाव; क्योंकि ये चार ही हेतु हैं जिनके कारण व्यक्ति को न चाहते हुए भी असत्य बोलने के लिए प्रवृत्त होना पड़ता है । बराबर यह सावधानी रखते हैं कि किसी के प्रति भी अप्रिय अथवा कटुक-शब्द उनके मुख से निकलने न पावे।
तृण-मात्र का ग्रहण भी पाप है इसलिए उनको अचौर्य-व्रत सहज है। अदत्त-ग्रहण का वनवासी के लिए प्रश्न क्या ? तदपि शरीर का भाड़ा चुकाने के लिए भोजन अवश्य ग्रहण करते हैं । वह भी केवल उसी दातार से लेते हैं जो कि हृदय से देना चाहे, अनमने-भाव से देने वाले का अन्न वे ग्रहण नहीं करते, क्योंकि हृदय से न दिया गया होने के कारण वह वास्तव में अदत्त है। अदत्त होने के कारण वृक्षों पर से स्वयं फल-फूल तोड़कर भी नहीं खाते वे । हाथ धोने को मिट्टी तक भी स्वयं नहीं लेते वे । इसी व्रत की रक्षा के लिए सदा वन, श्मशान अथवा गुफा आदि किसी ऐसे स्थान में रहते हैं वे जिसके स्वामी सब हैं अथवा जहाँ रोकने वाला कोई नहीं । वहाँ भी यदि कोई अन्य ठहरना चाहे तो उसे रोकते नहीं वे। किसी से वाद-विवाद भी करते नहीं वे क्योंकि वह भी वास्तव में दूसरे की श्रद्धा को लूटने का प्रयत्न है, अन्य कुछ नहीं। कितनी सूक्ष्म है व्रत-सम्बन्धी इनकी दृष्टि ?
ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए स्त्री के साये से भी दूर रहते हैं वे । स्त्री के राग-विषयक कोई चर्चा न करते हैं और न सुनते हैं । स्त्री के मनोहर अङ्गोंपाङ्गों की ओर कभी आँख उठाकर भी नहीं देखते हैं । गृहस्थ अवस्था में भोगे गए भोगों का मन से स्मरण नहीं करते। कभी अपने शरीर को स्नान आदि के द्वारा साफ-सुथरा अथवा सुन्दर बनाने का प्रयत्न नहीं करते।
परिग्रह-त्याग व्रत की रक्षा के लिए धागे का ताना मात्र भी पास नहीं रखते वे, नग्न रहते हैं । पाँचों इन्द्रियों के इष्टा निष्ट विषयों के संयोग-वियोग की चिन्ता नहीं करते वे। जितना तथा जो कुछ भी सहज प्राप्त है, उसी में सन्तुष्ट रहते हैं वे और इसीलिये कहलाते हैं महाव्रती।।
४. समिति समिति अर्थात् (सम+ इति) का अर्थ है अन्तरंग में निज शान्ति की प्राप्ति के प्रति और बाहर में अन्य जीवों की शान्ति की रक्षा के प्रति प्रयत्न करते हए सम्यक प्रकार चरण करना । यद्यपि वास्तविक समिति उतनी ही देर रह सकनी सम्भव है जितनी देर कि निज शान्ति में स्नान करते हुए ध्यानावस्था में स्थित रहते हैं वे, क्योंकि पूर्णतया शान्ति की प्राप्ति तथा अन्य जीवों की रक्षा तभी सम्भव है, अन्य क्रियायें करते हुए नहीं। तदपि अधिक समय उस अवस्था में स्थिति पाने की सामर्थ्य न होने के कारण जब इस दशा से च्युत हो जाते हैं और कुछ शारीरिक व वाचिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करने लगते हैं तो 'मेरी इन क्रियाओं से किसी भी छोटे या बड़े प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न होने पावे' इस उद्देश्य से अत्यन्त सावधानी पूर्वक वर्तते हैं वे । उनकी यह यत्नाचारी प्रवृत्ति ही अन्य जीवों की रक्षा के निमित्त होने के कारण समिति कहलाती है, जो पाँच प्रकार की है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन । इन्हीं का क्रम से कथन करता हूँ।
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