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३२. साधु धर्म
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३. महाव्रत
रखवाकर खड़े-खड़े ही, बच्चों की भाँति, वह भी दिन में केवल एक बार । सरस हो या नीरस, रूखा हो या चिकना, ठण्डा हो या गर्म उन्हें क्या ? गाय समान जैसा किसी ने डाल दिया वैसा ही खा लिया, खड्डा भरने से मतलब | जिस प्रकार घर में लगी आग को बुझाने के लिए उसका स्वामी रेत, मिट्टी, पानी जो भी मिले फेंक देता है उस पर; उसी प्रकार जठराग्नि को बुझाने के लिए साधु रूखा-सूखा, ठंडा-गर्म, ऐसा-वैसा जो कुछ भी मिले फेंक देते हैं उस पर ।
भय लगता है उनको जन-संसर्ग से इसलिये नहीं कि वे कुछ कहते हैं उनको प्रत्युत इसलिये कि कहीं अपनी ही किसी कमजोरी के कारण कदाचित् राग में न उलझ जायें वे उनके, और इस प्रकार खो बैठें सब कुछ, जो कमाया है। अब तक । इसीलिये अपनी और से सदा प्रयत्न करते हैं वे बचे रहने का अथवा उनकी बसतियों से दूर रहने का । यद्यपि सुनने पर या बाहर से देखने पर कुछ ऐसा लगता है कि या तो उनके दिमाग की कोई डिबरी ढीली हो गई है और या वे पशु की भाँति केवल स्वच्छन्दाचारी हैं, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । अत्यन्त तेजपुञ्ज हैं वे, अत्यन्त विवेकवन्त हैं वे, अत्यन्त आचारवन्त हैं वे ।
साधु-साधु की पहचान न होती है उसके वेश पर से और न उसके बाह्याचार पर से, प्रत्युत होती है उन महान गुणों पर से जो भरे पड़े हैं उसके हृदय की गहराइयों में । वीतरागता, शान्त-चित्तता, निर्भीकता, निरीहता, शोक, खेद, चिन्ता, लज्जा तथा ग्लानि-हीनता, अक्रोधता, निरभिमानता। 'मैं इतना ज्ञानी तथा तपस्वी हूँ, लोगों को मेरी विनय करनी चाहिये', ऐसा भाव कभी उदित नहीं होता उनके हृदय ,न ही अपनी प्रसिद्धि के लिए शिष्य-मंडली का संग्रह करते हैं वे । ख्याति-प्रसिद्धि आदि की एषणाओं से अति दूर चारों कषायों को परास्त कर दिया है जिन्होंने ऐसे होते हैं सच्चे साधु । सदा दया से आद्र रहता है चित्त उनका । 'छोटे-बड़े किसी भी प्राणि को मेरे द्वारा किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचे। मेरे द्वारा सबका हित हो, किसी के प्रति भी मेरे मन में कभी कोई अनिष्ट विकल्प उदित न हो, मेरे मुख से कभी भी पर - पीड़ाकारी वचन न निकलें, मेरे शरीर से किसी को किञ्चित् भी बाधा न हो, इस प्रकार के भाव रहते हैं सदा उनके हृदय में । भिक्षा आदि के अर्थ जब किसी ग्राम में प्रवेश करते हैं वे, अथवा किसी के द्वार पर जा खड़े होते हैं वे, तो अज्ञानीजन तिरस्कार करते हैं उनका, असह्य आक्रोश-वचन कहते हैं उनके प्रति, अपने द्वार पर से धुतकारकर बाहर निकाल देते हैं उस अग्नि की कणिका को । “नङ्गा-धड़ङ्गा, शर्म नहीं आती, चला आया माँगने, तेरे बाप ने बनाकर रखा है यहाँ भोजन तेरे लिये ? जा अब फुरसत नहीं फिर आइयो", और न जाने क्या-क्या सुनना पड़ता है उनको । छोटे-छोटे बच्चे गालियों में खिल्ली उड़ाते हैं उनकी, कङ्कड़े फेंकते हैं उनके ऊपर । परन्तु वे मुस्कराते रहते हैं सदा भीतर ही भीतर इनकी बाल- बुद्धि पर और कल्याण की कामना करते रहते हैं इनके लिए। क्या मजाल कि माथे पर बल पड़ जाएँ ।
साधारणजन समझें न समझें परन्तु ज्ञानीजन समझते हैं यह कि आगम में साधु के आचार-विचार सम्बन्धी जो विभिन्न शीर्षक प्राप्त होते हैं, वे सब पण्डितों की भाषा में कथित इनके उपर्युक्त स्वाभाविक महान् गुणों का विस्तार है, अन्य कुछ नहीं । यथा- 'नग्नता, अस्नान, अदन्तधोवन, केशलुञ्चन, पाणिपात्रता, एकभुक्ति, स्थितिभुक्ति अर्थात् खड़े रहकर खाना', ये सात बाह्य क्रियायें जिनका कि ऊपर उल्लेख किया गया है साधु के आगमोक्त महान गुण हैं । इनके साथ 'पँचेन्द्रिय-जय, पँचमहाव्रत, पँचसमिति, और षड्आवश्यक' ये २१ क्रियायें जोड़ देने पर उनके कुल २८ मूलगुण कहे गए हैं। इनके अतिरिक्त तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय, चारित्र और तप का भी उल्लेख है । लीजिए क्रमपूर्वक इन सबका संक्षिप्त सा दर्शन कर लीजिये ।
२. इन्द्रिय जय — इन्द्रियों को दास बना लिया है इन्होंने । पाँचों इन्द्रियों के विषय अविषय हो गए हैं अब इनके लिए । शान्ति का उपभोग तथा समता रस में स्नान, यही एक मात्र विषय रह गया है अब इनका । इसका विस्तार 'उत्तम संयम' नामक ३९ वें अधिकार में किया जाने वाला है ।
३. महाव्रत — पञ्च - अणुव्रतों का कथन श्रावक-धर्म के अन्तर्गत किया जा चुका है। उन्हीं की पूर्णता का नाम 'महाव्रत' है । 'केवल शरीर द्वारा ही नहीं वचन तथा मन के द्वारा भी किसी छोटे या बड़े प्राणी के किसी भी प्राण को किञ्चित् भी पीड़ा न पहुँचे' इस प्रकार की सावधानी ही है इन व्रतों की पूर्णता । अहिंसा की पूर्णता का उल्लेख आगे
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