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३२. साधु धर्म
१. सामान्य परिचय; २. इन्द्रिय जय; ३. महाव्रत; ४. समिति; ५.षड् आवश्यक; ६. गुप्ति; ७. धर्म; ८. अनुप्रेक्षा; ९. परिषह जय; १०. चारित्र; ११. तप; १२. महिमा।
१. सामान्य परिचय शान्ति पथ पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए जब मैं इस तृतीय श्रेणी में पदार्पण कर जाऊँगा, अर्थात् साधु बन जाऊँगा, तब मेरा जीवन किमात्मक होगा, यह बात चलनी है, अर्थात् साधु-धर्म की बात । गृहस्थ, श्रावक तथा साधु तीनों के धर्मों में वस्तुत: कोई भेद नहीं है । भेद है केवल निम्नोन्नत श्रेणियों का, जघन्यता व उत्कृष्टता का । जो क्रियायें आपको अब तक जघन्य रूप से करने के लिए कहा गया है प्राय: वही क्रियायें कुछ अन्यान्य विशेषताओं के साथ साधु उत्कृष्ट रूप से करता है। दूसरी विशेषता यह है कि श्रावक धर्म में बाह्याचार की प्रधानता है और साधु धर्म में अन्तरङ्ग आचार की। उसका सकल बाह्याचार सूक्ष्म हो कर अन्तरङ्ग में उतरता चला जाता है, जैसे कि उसे न अब देवदर्शन करने की आवश्यकता है और न प्रतिज्ञाबद्ध सामायिक करने की; तत्त्वदर्शन ही अब उसका देवदर्शन है और समता ही उसकी सामायिक । अत: बाह्य में देवदर्शन आदि करे या न करे, दोनों उसके लिए समान हैं।
सप्त बाहचिन्ह यद्यपि साधु धर्म को किसी निश्चित् वेष या लिङ्ग की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता, तदपि लोक-व्यवहार के अर्थ किसी न किसी वेष में तो उसे रहना होता ही है। विभिन्न सम्प्रदायों में अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार साधुओं के विभिन्न वेष उपलब्ध हैं परन्तु वास्तव में देखा जाए तो साधु का अपना कोई वेष नहीं । निर्वेष ही उसका वेष है । अथवा यों कह लीजिए कि प्रकृति ने जिस वेष में उसे उत्पन्न किया है वही उसका वेष है, अर्थात् शिशु अथवा पशु पक्षी की भाँति यथाजात नग्नता ही उसका स्वाभाविक वेष है । इसमें कुछ भी कृत्रिमता करना अहंकार का कार्य है जिसके राज्य का वह उल्लंघन कर चुका है । भले ही कोई अन्य उसे वस्त्र ओढ़ा दे परन्तु जब वह उसकी सार सम्भाल ही नहीं करेगा, जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर भी स्वयं उसे बदलेगा नहीं, तो कैसा हो जायेगा उसका वेष, यह कहने की आवश्यकता नहीं।
वेष की ही बात नहीं उसका सारा जीवन ही शिशु की भाँति प्रकृति माँ के आश्रित है । न कोई घर न द्वार, जहाँ कहीं भी जैसा-कैसा भी स्थान मिल गया, पड़ गए वहीं । कोई छत नहीं, मिली तो मिली न मिली तो न सही, आकाश तो है। भले अन्य किसी स्थान में कोई घुसने की आज्ञा न दे इस नङ्ग-धड़ङ्ग को, परन्तु निर्जन-वन, उपवन, श्मशान, पर्वत की गुहा, वृक्ष की कोटर, नदी का पुल, घाट की पैड़ी आदि स्थानों में कौन रोकता है उसे ? अत: पड़ जाते हैं वहीं, न गर्मी की परवाह
और न सर्दी बरसात की चिन्ता, न डाँस, मच्छर, मक्खी आदि का गम और न वनचरों का भय । निर्भय अकेले रहते हैं वे प्रकृति माँ की गोद में । उनमें से भी किसी स्थान को अपना निकेत या घर नहीं बनाते वे, घूमते रहते हैं सदा अनिकेत, बेघर, आज यहाँ और कल वहाँ, जिधर नाक उठी चल दिये । न स्नान करने का भाव, न दाँत धोने की चिन्ता । भले चढ़ा रहे मैल देह पर, भले नाक सुकेड़ते रहें लोग इसे देखकर, उन्हें क्या ? सर व मूंछ दाढ़ी के बाल बढ़ गए तो फेंक दिये नोचकर अपने हाथों से, घास फूस की भाँति । निराश्रय जो ठहरे, किससे कहें, कहाँ से लायें पैसा नाई को देने के लिए?
साथ में लगे इस छकड़े को खेंचने के लिए यदि कभी कुछ आवश्यकता पड़ी तो जा अलख जगाई किसी के द्वार पर । ऊँच हो या नीच, धनवान हो या निर्धन, उन्हें क्या ? किसी ने दिया-दिया नहीं तो चल दिये आगे। दूसरा द्वार
और फिर तीसरा । ५-७ द्वारों पर जाने से कछ न कछ तो कहीं मिल ही जायेगा, प्रभु कृपा से । न शरीर से अपने लिए कुछ करना, न वचन से किसी को अपने लिये कुछ कहना, और न किसी के द्वारा प्रेमवश कुछ किए गए की मन से अनुमोदना करना। जिस प्रकार भ्रमर एक-एक फुल से रस चुस-चूसकर अपना पेट भर लेता है और किसी फूल की एक पँखडी को भी क्षति पहँचने नहीं देता. उसी प्रकार साध भी ५-७ द्वारों पर जाकर कहीं किसी प्रकार भी अपना पेट भर लेता है और किसी गृहस्थ को तनिक भी बाधा पहुँचने नहीं देता। जैसा किसी ने दे दिया, खा लिया हाथ पर
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