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________________ ३१. श्रावक धर्म २१९ ९. आगे बढ़ कार्य नहीं होना चाहिए', ऐसा भाव रहता है। और इसलिए अनाचार तुच्छ मात्र होते हुए भी बड़ा अपराध है और अतिचार पर्वत सरीखा होते हुए भी हल्का अपराध है। __ अभिप्राय की महिमा अपार है। बाहर में अपराध न करने पर भी अभिप्राय में करने की बुद्धि होते हुए अपराधी है और अभिप्राय में न होते हुए स्पष्ट अपराध करता हुआ भी निरपराधी है, शीघ्र ही सुधरने के योग्य है । धर्मी-जीवन में लगने वाले अपराध अतिचार रूप होते हैं, अनाचाररूप नहीं । परन्तु बराबर बाहर से आप लोगों की धुत्कारें पड़ती रहें, उसे सान्त्वना देने का प्रयत्न न किया जाए तो हो सकता है कि वह अतिचार अनाचार में परिवर्तित हो जाए। वह सोचने लगे कि 'लोक में तो निन्दा हो ही चुकी, कोई तेरे साथ सहानुभूति करने वाला दिखाई देता नहीं, अत: अपराध करने से क्यों घबराता है ? जब अपराधी ही बन गया तो दिल खोलकर कर' इत्यादि । इस प्रकार कल्याण के पात्र को आप ढकेल देंगे अकल्याण के गर्त में। कितना बड़ा अनर्थ होगा? अत: भाई ! गाँठ बाँध ले इस बात को कि कभी किसी का दोष देखकर घृणा न करेगा। प्रेमपूर्वक समझा बुझाकर उसका दोष टलवाने का प्रयत्न करेगा, और यदि वह न भी माने तो भी उससे द्वेष नहीं करेगा, माध्यस्थता ही धारेगा। बाह्य के अपराधों को न देखकर अभिप्राय को पढ़ना सीखो, अभिप्राय की रक्षा करो । प्रवृत्ति में से दोष धीरे-धीरे स्वत: टल जायेंगे। अभिप्राय न बदलकर प्रवृत्ति में से दोष टालना चाहोगे तो भले कुछ दिन रुके रहें, आयु पर्यन्त रुके रहें, पर अगले भव में सही, एक रोज तो अवश्य जागृत होकर ही रहेंगे। अभिप्राय मूल है और प्रवृत्ति उसकी शाखा । मूल पर आघात करना ही बुद्धिमानी है, केवल शाखा को काटने से कुछ न होगा। इस गृहस्थ अवस्था में भले ही अपराध प्रवृत्ति में से न टले, पर अभिप्राय में से निरर्गलता व स्वच्छन्दता टल सकती है । यह महान कार्य है, इसे अवश्य कर डालो । अवसर मिला है इसे मत चूको। ९. आगे बढ़-यदि धीरे-धीरे अभ्यास करता चले और शक्ति को न छिपाये, तो क्रमश: अणुव्रती श्रावक बनकर उसकी जघन्य स्थिति से उत्कृष्ट महिमापूर्ण श्रेणी में पदार्पण करेगा, ऐसा निश्चय है । भय छोड़, यदि शान्ति का उपासक बना है तो शरीर से ममत्व हटा, इस पर्याय में आने वाली बाधाओं से न घबरा।' तेरे समक्ष जो कदाचित् साधुओं के व्रतों आदि की चर्चा की जाती है उसका प्रयोजन यह नहीं कि तुझे ही इस प्रकार करने के लिए कहा जा रहा है, प्रत्युत यह बताना है कि शान्ति का मार्ग उतने मात्र पर समाप्त नहीं हो जाता जितना कि गृहस्थ धर्म में करने के लिए कहा गया है। यदि उतने ही मात्र में सन्तोष धार लेगा तो शान्ति की पूर्णता न हो सकेगी। पूर्णता की प्राप्ति के अभाव में कदाचित् तुझे मार्ग पर अविश्वास न हो जाय इसलिए पूर्ण मार्ग जानना आवश्यक है । भले ही शक्ति की हीनतावश उसका अंश मात्र ही जीवन में उतारा जाए, परन्तु यह जानना आवश्यक है कि, तेरे वाली उस प्रथम श्रेणी के अतिरिक्त जिसका अब तक कथन चला आ रहा है, दो और श्रेणियाँ भी हैं जो तेरे वाली से उत्तरोत्तर ऊँची हैं। वे तझमें बल की वृद्धि हो जाने के पश्चात ही धारी जानी सम्भव हैं। उनमें से प्रथम की नं० २ वाली श्रेणी तो श्रावक की है जिसे वानप्रस्थ भी कहते हैं और अणुव्रती के रूप से जिसका उल्लेख अभी-अभी किया जा चुका है। दूसरी नं० ३ वाली श्रेणी साधु की है जिसे तपस्वी, योगी, मुनि, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। इसका यह अर्थ भी न समझ लेना कि साधुओं की क्रियायें सर्वथा आपके करने की नहीं हैं, और गृहस्थ की क्रियायें सर्वथा साधु को करने की नहीं हैं, बल्कि यह समझना कि ये क्रियायें मुख्यतया साधुओं के और आंशिक रूप में गृहस्थ के करने योग्य हैं। आगे सुनकर आप स्वयं जान जाओगे कि अब तक जो क्रियायें आपको करने के लिए कहा गया है, वे साधु की क्रियाओं के ही अल्परूप हैं और इन क्रियाओं के अतिरिक्त भी साधु धर्म में बताई जाने वाली कुछ क्रियायें हैं जो गृहस्थ के द्वारा आंशिक रूप में की जानी शक्य हैं। वे सब जीवन के प्रयोजन संबन्धी अनेकों ग्रन्थियाँ सुलझाने वाली हैं, अत: ध्यान से सुनना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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