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________________ ३१. श्रावक धर्म २१८ ८. अतिचार और अनाचार २. देखिए किसी बच्चे को दो व्यक्ति पीटते हैं, एक उसकी माता और दूसरा मैं । माता भी किसी कारणवश क्रोध के आवेश में पीटती है और मैं भी किसी कारणवश क्रोध के आवेश में पीटता हूँ । सम्भवत: माता तो उसे अधिक पीटे और मैं केवल एक ही तमाचा लगाऊँ, परन्तु बच्चा फिर भी माता की गोद की ओर ही जाता है, मेरी ओर नहीं आता । क्या कारण है ? यही कि बच्चा पहचानता है माता के अभिप्राय को, वह जानता है कि माता ने अन्तरङ्ग से उसे द्वेष करके नहीं मारा, मारने के पश्चात् वह पछता रही है, 'हाय-हाय ! कितनी क्रूर हूँ मैं, धिक्कार है मुझे, अपने जिगर के टुकड़े को इस प्रकार मारते हुए कहाँ चला गया था मेरा मातृत्व ?' इसी प्रकार न जाने क्या-क्या भाव आ रहे हैं और जा रहे हैं उसके हृदय में । भाव कृत्रिम नहीं स्वाभाविक हैं। इसका नाम है पश्चाताप व आत्म ग्लानि जिसके कारण वह मारती हुई भी नही मारती । दूसरी ओर मेरे अन्दर पड़ा है द्वेष, 'किसी प्रकार फिर मेरे कमरे में न आये, बड़ा दंगई है, यह उठा वह धर, यह तोड़ वह फोड़, मुझे नहीं भाता ऐसा दंगई बालक', ये हैं मेरे भाव । भले एक ही तमाचा लगाया हो परन्तु अन्तरङ्ग के अभिप्राय-पूर्वक लगाया है, और इसलिये उस पर मुझे कोई पश्चाताप नहीं हो रहा है, बल्कि उस क्रिया को अच्छा ही समझ रहा हूँ, 'चलो बला टली, बिना मारे यह मानने वाला नहीं था, लातों के भूत बातों से नहीं मानते', ये हैं मेरे भाव । कितना महान अन्तर है दोनों के भावों में ? इसी कारण माता ने मारते हुए भी नहीं मारा और मैंने थोड़ा मारकर भी बहुत मारा। ३. एक तीसरा दृष्टान्त भी सुनिये । एक व्यापारी की दुकान पर रहता है एक मुनीम । बड़ा ईमानदार है, सेठ साहब को पूर्ण विश्वास है उस पर, सब रुपया पैसा तथा लेन-देन उसके हाथ में है । किसी समय एक विचार उठा मुनीम के हृदय में, 'यदि थोड़ा-थोड़ा करके रुपया उड़ाने लगूं तो सेठ साहब को क्या पता चल सकता है ? ' बस कर दी चोरी प्रारम्भ । पहले महीने में सौ, और दूसरे में तीन सौ । एक साल में २० हजार रुपया उड़ा लिया, सेठ को कुछ खबर नहीं, हिसाब-किताब बिल्कुल ठीक । किसी प्रकार भी चोरी नहीं पकड़ी जा सकती थी, परन्तु मुनीम के हृदय की गति किसी और ही दिशा में चली जा रही थी। बाहर में बाराबर चोरी कर रहा था और अन्तरङ्ग में, 'अरे ! क्या कर रहा है तू? किसके लिए कर रहा है यह इतना बड़ा अनर्थ ? कितने दिन चलेगा यह कुछ ? विश्वासघात करना क्या शोभा देता है तुझे? क्या मुँह लेकर जाता है सेठ के सामने ? क्या इसी का नाम है मनुष्यता?' और इसी प्रकार अनेकों धिक्कारें निकला करती थी बराबर उसे अन्तस्तल से । चोरी अवश्य करता था पर उसके हृदय ने कभी उस धन को स्वीकार न किया, बराबर उसकी रक्षा करता रहा, पृथक् हिसाब खोलकर बैंक में डलवा लि हाथ न लगाया, मानो धरोहर थी उसके पास । कुछ दिन और बीत गये अपराधी प्रवृत्ति तथा हृदय के इस संघर्ष में, और आखिर जीत हुई हृदय की। डेढ़ वर्ष पश्चात् लाकर रख दिया बीस का बीस हजार रुपया सेठजी के चरणों में, और हाथ जोड़कर खड़ा रह गया किंकर्त्तव्य-विमूढ़ सा । 'सेठ जी ! अपराधी हूँ मैं, मुझ जैसा दुष्ट सम्भवत: लोक में कोई दूसरा न हो, विश्वासघात किया है मैंने । यह आपकी दुकान से चुराया हुआ धन है । आश्चर्य न करें, मैं ही हूँ वह चोर जिसने यह कुकर्म किया है । दण्ड दीजिये इस पापी को।' इसी के समान एक दूसरे चोर को भी देखिये जो उसी दुकान पर से चुरा रहा है और खा रहा है मस्त, मानो उसके बाप की है यह सम्पत्ति । भले साल भर में केवल २०० रुपये ही चुरा सका हो पर उस चोरी में रस ले रहा है वह । आप ही बताओ दोनों में चोर कौन ? २०,००० चुराने वाला या २०० चुराने वाला? सोच में पड़ गये ? हृदय की आवाज को छिपाने का प्रयत्न न कीजिये । मुझे वह स्पष्ट सुनाई दे रही है कि आप समझ गये हैं इस रहस्य को। ८. अतिचार और अनाचार-लीजिये अब इसको सिद्धान्त का रूप दे दीजिये ताकि भविष्य में शंकायें उत्पन्न होने को अवकाश न रह जाय । व्रती के अपराध दो प्रकार के होते हैं—एक अभिप्रायपूर्वक किया जाने वाला और दूसरा अभिप्राय-रहित प्रमादवश, या केवल किसी संस्कार के क्षणिक उदयवश किया जाने वाला; एक अच्छा समझकर किया जाने वाला और एक आत्मग्लानि-सहित स्वयं हो जाने वाला। इन दोनों में से पहले अपराध 'अनाचार' और दूसरे का नाम है 'अतिचार' । अनाचार में निरर्गलता होती है, किया तो सही किया, क्या बुरा किया ? ठीक ही किया', ऐसा भाव रहता है; और अतिचार में उस प्रवृत्ति को रोकने का प्रयत्न रहता है, आत्मनिन्दन व ग्लानि रहती है । 'यह तूने बहुत बुरा किया, तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, अब किया तो किया, भविष्य में तेरे द्वारा ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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