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________________ ३१. श्रावक धर्म २१७ ७. दोषों की सम्भावना बाधाओं का प्रतिकार करने की आज्ञा दूंगा, प्रत्युत सब कुछ सहन करता हुआ समता में स्थित रहूंगा। धन लुटे परवाह नहीं, पुत्र मरे परवाह नहीं, बिजली गिरे परवाह नहीं। यह है बाह्य सामायिक और इतने काल पर्यन्त चित्त को यथाशक्ति मन्त्रजाप्य या ध्यान द्वारा एकाग्र करने का प्रयत्न करते रहना है अन्तरङ्ग-सामायिक, क्योंकि ऐसा करने से उसकी विषयों के प्रति होने वाली द्वन्द्वात्मक भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है और हीनाधिक- रूपसे वह समता में स्थित हो जाता है। इतना विवेक रखना आवश्यक है यहाँ कि अन्तरङ्ग समता के अभाव में उसका केवल बाह्य में प्रतिज्ञाबद्ध होकर रहना, घर दुकान का सब काम-धन्धा छोड़कर मन्दिर या उपाश्रय में मौन बैठे रहना, पीड़ायें सहते रहना और हाथ में माला कर उसके मन सरकाते रहना सामायिक नहीं दम्भ है, केवल लोक- दिखावा है, अज्ञान- जन्य रूढ़ि है । और अभ्यन्तर-समता के सद्भाव में दुकान पर बैठकर ग्राहकों से व्यवहार करते रहना भी सामायिक है, क्योंकि जिस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ प्रतिज्ञाबद्ध होकर बैठता था, वह अब सिद्ध हो चुका है और उसके लिए बाह्य क्रिया की अब उसे कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। ७. दोषों की सम्भावना — देखो इन संस्कारों की विडम्बना कि इतना पुरुषार्थ करते हुए भी तथा आचार-विचार में ऊँचा चढ़ जाने पर भी पीछा नहीं छोड़ते । प्रभो ! इनसे मेरी रक्षा कीजिये। अब तक के विस्तृत कथन में ऊपर-ऊपर ही चढ़ने की बात बताई गई है, गिरने की बात कहीं पर भी नहीं आई । इसलिये ऐसा भ्रम हो सकता है कि 'जो चढ़ा वह चढ़ता ही चला गया, साधक कभी भी गिर नहीं सकता।' परन्तु ऐसा नहीं है, परिणामों की बड़ी विचित्रता है । दबे पडे पुराने संस्कारवश यह नीचे भी गिरता है और फिर चढ़ जाता है, परन्तु बाहर में वैसा का वैसा ही दिखाई देता रहता है । यह तो रही अन्तरङ्ग परिणामों की बात, कदाचित् बाहर में भी विकार को प्राप्त हो जाता है वह । ऐसा होने पर यदि लक्ष्य वही शुद्धता का बना रहे तो बाहर का विकार भी शीघ्र ही दूर हो जाता है। ऐसी अवस्था को कहते हैं नियमों व व्रतों में अतिचार या दोष लगना । साधक कोई लोहे की मशीन तो है नहीं कि एक बार चला दी और चलती रही। मशीन भी तो कोई ऐसी दिखाई नहीं देती जो कभी न बिगड़े । शरीर भी कोई ऐसा दिखाई नहीं देता जिसे रोग न आये। फिर यदि मुझमें अर्थात् मेरे मन में ही कदाचित् कोई बिगाड़ उत्पन्न हो जाये, कोई रोग आ जाय तो कौन आश्चर्य ? वह भी तो अन्य पदार्थों की भाँति एक पदार्थ ही है । पूर्ण हो जाने पर भले इसे रोग न हों पर प्रारम्भिक भूमिका में 'अल्प-शक्तिवश हो ही सकते हैं । अतः किसी साधक के जीवन में कदाचित् दोष लग जाये तो उसे धुतकारना या उससे घृणा करना योग्य नहीं । जिस किस प्रकार भी उसका स्थितिकरण करके पुनः उसे मार्ग में स्थापित करना कर्तव्य है । बड़े-बड़ों को दोष लगते देखे जाते हैं, बड़े-बड़ों से भूलें हो जाती हैं, बड़े-बड़े मार्ग से च्युत हो जाते हैं । अरे रे ! कितने दुष्ट हैं ये संस्कार ? यह सब इन्हीं का तो प्राबल्य है कि ग्यारहवें गुणस्थान पर चढ़कर भी, जहाँ पूर्णता का स्पर्श करने में रह जाता है केवल एक बाल मात्र का अन्तर, वह गिर जाता है ऐसे गर्त में जहाँ से न जाने कितने काल तक वह निकल कर शान्ति के दर्शन भी करने न पायेगा। बिल्कुल उसी प्रकार गहन अन्धकार में विलीन हो जायेगा जिस प्रकार कि साधना प्रारम्भ करने से पहले पड़ा था। इन संस्कारों से प्रेरित होकर किस समय कोई बड़े से बड़ा साधक, क्या दोष कर बैठे कुछ पता नहीं । यदि बड़ा दोष करता है तो वह स्वयं साधक की कोटि से निकल जायेगा, अथवा पुनः स्वयं सचेत होने पर या गुरु के द्वारा सचेत किए जाने पर अपने उस दोष की निन्दा करता हुआ, प्रायश्चित ग्रहण करके फिर से साधक बन जायेगा, पहले से निम्न श्रेणी का । यदि हल्का सा दोष कर बैठता है तो तुरन्त ही सावधान होकर तथा प्रायश्चित लेकर निर्दोष बन जाता है । इन दोनों ही अवस्थाओं में दूसरों का कर्त्तव्य यह है कि उस दोषी को समझा-बुझाकर सही रास्ते पर लगावें । परस्पर उपकार करने की भावना रहनी चाहिए, क्योंकि सभी को दोष लगने पर प्रमादवश शिथिलाचार होने की सम्भावना रहती है। कुछ दृष्टान्तों के द्वारा इस विषय को समझिये । १. आज के लौकिक न्यायालयों में भी अपराध का निर्णय अभिप्राय पर से किया जाता है। बड़े बड़ा अपराधी भी क्षमा कर दिया जाता है यदि न्यायाधीश यह समझ ले कि उसके हृदय में अपने उस अपराध के प्रति ग्लानि उत्पन्न हो चुकी है और वह भविष्य में उस उपराध को पुनः नहीं करेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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