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३१. श्रावक धर्म
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६. सामायिक
करता हुआ अन्य प्राकृतिक बाधाओं को किञ्चित् जीत लेता है । भोगों सम्बन्धी नित्य प्रयोग में आनेवाली खाद्य व अन्य सामग्री के ग्रहण की सीमा को कम करता हुआ इन्द्रियों को किञ्चित् जीत लेता है। सचित्त पदार्थों के भक्षण का वरात्रि - भोजन का पूर्ण त्याग कर देता है । पर स्त्री का त्याग तो पहले ही कर दिया था, अब स्व- स्त्री का भी त्याग करके मैथुन की बाधा को जीत लेता है। अधिक विरक्त हो जाने पर उद्योग को पूर्णतया छोड़ देता है और परिग्रह को तथा घर-बार को छोड़कर मन्दिर में रहने लगता है । अन्य लोगों से बात करना भी बहुत कम कर देता है । और भी अनेकों व्रत धारण कर लेता है, यहाँ तक कि अभ्यास बढ़ाते-बढ़ाते ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है जबकि पहनने के लिए एक लंगोटी और ओढ़ने के लिए एक चादर से अधिक कुछ भी पास नहीं रखता, पैसे को छूना भी पाप समझता है, माता-पिता आदि से कोई नाता नहीं रखता अर्थात् मुनिवत् हो जाता है । इस दशा में वह श्रावक की क्षुल्लक संज्ञा वाली उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त हो जाता है ।
यहाँ भी नहीं रुकता, और आगे बढ़ता है क्योंकि लक्ष्य पूर्णता पर है, उससे कम पर सन्तोष आने वाला नहीं । बल बहुत बढ़ चुका है, शरीर को भी दृष्टि से हट जाने के लिये ललकारता है, परन्तु जब यह देखता है कि यह पीछा छोड़ने को तैयार नहीं तो अन्तरंग से स्वयं इसे त्याग देता है, अर्थात् इसे कह देता है कि देख मैं शान्ति- पथ पर बहुत आगे बढ़ा जा रहा हूँ, गर्मी-सर्दी, मक्खी-मच्छर व भूख-प्यास आदि अनेकों बाधायें आयेंगी, ऐसे अवसरों पर अब पहले के समान मैं तेरी सेवा न करूंगा। अब मैं तेरा सेवक नहीं. तुझे मेरा सेवक बनकर रहना होगा। इस प्रकार श्रावक दशा का अतिक्रम करके साधु हो जाता है वह, संन्यासी हो जाता है वह ।
६. सामायिक – अणुव्रती श्रावक के व्रतों में अभी-अभी 'सामायिक' नाम की साधना का उल्लेख किया गया है । बाह्य जगत से हटकर अन्तरङ्ग में जाने के लिए इसका महत्त्व सर्वोपरि है, इसलिए यहाँ इसका कुछ विशेष स्वरूप दर्शा देना उचित है | दर्शन-खण्ड में चारित्र का लक्षण समता किया गया है वह समता ही वास्तव में सामायिक शब्द का वाच्य है । परन्तु साधक जो घर-बार का काम-धन्धा छोड़कर सारे सारे दिन मन्दिर या उपाश्रय में बैठा रहता है अथवा वहाँ बैठकर यथाशक्ति मन्त्र जाप्य या ध्यान आदि करता रहता है, वह सब क्योंकि समता का अभ्यास करने के लिये किया जाता है इसलिये उपचार से सामायिक संज्ञा को प्राप्त हो जाता है । मन्त्रजाप्य आदि वास्तव में सामायिक नहीं ध्यान है, जिसका उल्लेख आगे यथा-स्थान किया जाने वाला है। (देखो अधिकार ४१) ।
ध्यान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता अर्थात् चित्त का इधर-उधर विषयों में न भटककर अपने शान्त-समता-स्वभाव में स्थित रहना, आत्मशक्ति की बाधक चिन्ताओं का अथवा इष्टानिष्टरूप द्वन्द्वात्मक विकल्पों का पूरी तरह निरोध करना । इसे पूर्णतया करने की सामर्थ्य योगी-जनों में ही होती है परन्तु निम्न भूमिका में भी इसका बड़ा महत्व है, विशेषता यह कि यहाँ यह प्रक्रिया ध्यान न कहलाकर 'सामायिक' कहलाती है । सामायिक और ध्यान वस्तुतः एक ही बात है, अन्तर केवल इतना है कि सामायिक में चित्त की स्थिरता ध्यान की अपेक्षा कम होती है। सामायिकगत द्वन्द्व स्थूल होने के कारण बुद्धिगम्य होते हैं और ध्यानगत वे ही सूक्ष्म होने के कारण बुद्धि की पहुँच से दूर रहते हैं, अर्थात् वहाँ चित्त की एकाग्रता अधिक होती है ।
आगे ' चारित्र' नाम के पृथक् अधिकार में (देखो अधिक ४६) 'सामायिक' नामक जिस चारित्र का उल्लेख किया जाने वाला है, वह भी वास्तव में यही है । विशेषता यह कि श्रावक की निम्नभूमिका में जो बात अभ्यास करने के लिये व्रतरूप से की जाती थी, वही बात साधु की उन्नत भूमिका में चारित्र रूप हो जाती है अर्थात उसका सहज स्वभाव बन जाती है । व्रत का तात्पर्य है हठपूर्वक अपने को नियन्त्रित रखने का प्रयत्न करना और चारित्र का अर्थ है धर्म या स्वभाव जिसका पहले उल्लेख किया जा चुका है (देखो ५.४) । श्रावक जिस बात को प्रतिज्ञाबद्ध होकर निश्चित समय के लिए प्राप्त करने का प्रयत्न करता है वह साधु को बिना प्रयत्न के सहज - सिद्ध है। श्रावक चाहता तो यही है कि यह समता मेरा स्वभाव बन जाय और मुझे इसकी प्राप्ति या रक्षा के लिए प्रयत्न करना न पड़े परन्तु संस्कारवश वह ऐसा करने के लिए समर्थ नहीं है । इसलिए कुछ काल के लिये ऐसा संकल्प करके मन्दिर आदि में जा बैठता है कि इतने काल पर्यन्त मैं इन इन्द्रियों को न तो कोई उपभोग्य विषय दूँगा, न इन्हें किसी से बात करने दूंगा और न किन्हीं विघ्न
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