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________________ ३१. श्रावक धर्म २१५ ५. अणुव्रती देखम-देखी कर भी लिया तो विवेक हीन होने के कारण उसका फल वह नहीं हो सकेगा जिसका कि यहाँ प्रकरण चल रहा है। (देखो १४.३) इस प्रकार अन्तरंग से विषय भोगों सम्बन्धी सामग्री के प्रति यदि विरक्त भाव करता हुआ साहस पूर्वक धीरे-धीरे उनका त्याग करने का अभ्यास करता रहे, और संयम अधिकार में कथित पूर्वोक्त सकल हिंसा के विकल्पों का (देखो २६.८) भी त्याग करने का अभ्यास करता रहे तो एक दिन ऐसा आयेगा कि तेरे मन की वह घुण्डी खुल जायेगी जो दृढ़ता-पूर्वक त्याग करने का साहस तुझमें उत्पन्न होने नहीं देती अर्थात् उन्हीं क्रियाओं को व्रत रूप से तुझे अंगीकार करने नहीं देती । व्रत अर्थात् उन बातों से अन्तरंग में विरक्तता, उदासीनता व हटाव तथा बाह्य में उनके प्रति की प्रवृत्ति में ब्रेक लगाने का प्रयत्न । जब तक अन्तरंग से वह घुण्डी या ग्रन्थि नहीं खुलती तब तक भले ही अभ्यास-रूप से सब कुछ त्याग कर दे, तू व्रती नहीं कहला सकता और व्रत के बिना आगे बढ़ा नहीं जा सकता, सोही आगे दर्शाते हैं । ४. शल्य - व्रत धारण करने में बाधक घुण्डी या शल्य क्या है, इसको स्पष्ट करता हूँ । देखिये आज तक आपने माँस खाकर नहीं देखा, आगे भी खाने की सम्भावना नहीं, परन्तु उसको त्यागने के लिए कहा जाय तो अनेकों विकल्प सामने आकर खड़े हो जाते हैं। यदि कल को बीमार हो जाऊँ और डाक्टर बता दे माँस खाना, तो ? व्रत आज तक धारण किया नहीं, अतः यदि भङ्ग हो गया, तो ? इसी प्रकार अन्य विषयों सम्बन्धी त्याग की बात आ पड़ने पर यह 'तो' का भाव बिना किसी के बताये अन्तरङ्ग में उत्पन्न हो जाता है, और मेरा मार्ग रोक लेता है, मुझे प्रतिज्ञा लेने या व्रत धारण करने की आज्ञा नहीं देता। यह 'तो' ही वह ग्रन्थि है जिसका नाम आगम-भाषा में 'शल्य' है । यद्यपि छोटी सी बात दीखती है परन्तु देखिये कितनी घातक है यह कि व्रत लेकर आगे बढ़ने नहीं देती, त्याग होते हुए भी त्याग करने नहीं देती। यही तो अन्तर है एक व्रती - गृहस्थ और अव्रती - गृहस्थ में । परन्तु अभ्यास करते-करते जब यह विश्वास हो जाता है कि “इतने दिनों तक इस विषय का प्रयोग जीवन में नहीं किया तथापि कोई विशेष बाधा नहीं आई और यदि थोड़ी बहुत आई भी तो उसको जीतने में सफल रहा", तब यदि इस त्याग को व्रत-रूप से ग्रहण कर ले तो कोई कठिनाई नहीं आयेगी । विपरीत इसके एक साहस उत्पन्न होगा, और अन्तरंग की 'तो' को लवकर तू उसी अभ्यास रूप त्याग को व्रत की कोटि में ले आयेगा । व्रती को भी अव्रती बनाये रखने वाली इस ग्रन्थ को तोड़ने में बड़े बल की आवश्यकता है, उस बल की जिसके प्रकट हो जाने पर चित्त में इतनी दृढ़ता आ जाती प्राण जायें तो जायें, लोक की सारी बाधायें व पीड़ायें एकत्रित होकर आयें तो आयें, इस दिशा में कदापि प्रवृत्ति न करूँगा । देखिए कितना महान अन्तर पड़ गया इस एक छोटी सी घुण्डी के खुलने से । इसीलिए थोड़ा भी त्याग करने वाला 'निःशल्य' व्रती है और बहुत अधिक त्याग करने वाला भी शल्यवान अवती है 1 ५. अणुव्रती - इस प्रकार अभ्यासवश अवती से व्रती की कोटि में आकर वह गृहस्थ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा धनसञ्चय-त्याग इन पाँच व्रतों का आंशिक रूप से ग्रहण कर लेता है, अर्थात् अहिंसा के सर्व भेदों में से चलने फिरने वाले स जीवों की पीड़ा सम्बन्धी यथायोग्य हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार व धनसञ्चय का क्रम से त्याग करने लगता है । पहले संकल्पपूर्वक की जाने वाली संकल्पी हिंसा के विकल्पों के त्याग का व्रत लेता है, फिर विरोधी हिंसा के त्याग का और फिर क्रम से उद्योगी व आरम्भी हिंसा के त्याग का भी । रुपये-पैसे का, घर दुकान व जमीन का, सोने-चाँदी का, कपड़े जेवर का, बर्तन फर्नीचर का, और भी सर्व परिग्रह का परिमाण कर लेता है। अमुक-अमुक वस्तु इससे अधिक न रखूँगा, प्रतिदिन इतने समय से अधिक व्यापार न करूंगा, इतने क्षेत्र से बाहर व्यापार न करूँगा न कराऊँगा, चिट्ठी पत्र भी न लिखूँगा, प्रतिदिन इतने से अधिक न कमाऊँगा, प्रति रुपया इतने से अधिक नफा न लूँगा इत्यादि । इस प्रकार विषय-भोगों की लालसा तथा दैनिक आवश्यकतायें कम हो जाने के कारण बड़ा सन्तोषी जीवन बिताने लगता है वह । व्रतों को ग्रहण कर लेने के कारण अणुव्रती या श्रावक संज्ञा को प्राप्त हो जाता है वह । इतना करने पर भी वह रुकता नहीं, बराबर क्रम से बढ़ा चला जाता है, पूर्णता पर लक्ष्य रखकर । अधिक-अधिक उपवास करने का अभ्यास करके क्षुधादि बाधाओं को किञ्चित् जीत लेता है। अधिक-अधिक समय तक सामायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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