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________________ ३१. श्रावक धर्म २१४ ३. अभ्यास की महत्ता नाम मात्र की उस शान्ति के प्रति अन्तरंग से बहमान व उल्लास जागृत नहीं हुआ है तुझे। उसके अभाव में वह पहला विषय-सुख ही सुख भासा करता है तथा उस ही की महिमा गाया करता है । उन योगियों की दशा तुझसे कुछ भिन्न प्रकार की है, उन्होंने केवल भावुकतावश अथवा किसी मोक्ष की या किसी भावी काल्पनिक-सुख की अभिलाषा वश यह महान त्याग किया हो, ऐसा नहीं है। किसी बाहर के दबाव या भय वश या किसी लोकेषणावश त्याग किया हो, ऐसा भी नहीं है । एक शक्ति है जो अन्तरंग से उन्हें प्रेरणा दे रही है, उनके अन्दर एक उल्लास सा, एक उत्साह सा उत्पन्न कर रही है यह त्याग करने के लिए, और वह शक्ति है शान्ति का उत्तरोत्तर अधिकाधिक वेदन, उसमें तृप्ति व उसके प्रति बहुमान । भला एक भिखारी को जिसके पल्ले एक सूखी ज्वार की रोटी बंधी है, यदि आप पेट भर खीर परास दें तो क्या वह ज्वार की रोटी खायेगा? क्या उसे फेंक न देगा? बस अलौकिक शान्ति के अत्यन्त मधुर व सुगन्धित व्यञ्जन के अनुभव में क्या उसके हृदय में इस धूल का मूल्य रह जायेगा? क्या इसे भोगेगा? क्या इसे त्याग न देगा? क्या इसके त्यागने में दुःख होगा उसे ? किसी भावी सुख के या मोक्ष के या सर्वज्ञता के लालच से छोड़ देता हो उसे, यह भी असम्भव है, क्योंकि भविष्य के सुख की आशा के आधार पर वर्तमान का सुख छोड़ना मूर्खता है । मूर्खता क्या, छोड़ा ही नहीं जा सकता। 'कल को दिवाली है, बड़े-बड़े स्वादिष्ट व्यञ्जन खाने को मिलेंगे', इस इच्छा के कारण क्या कोई ऐसा है जो आज का भोजन छोड़ दे ? “तुम्हारी सेवा से मैं बहुत प्रसन्न हुआ, यह महल मेरी मृत्यु के पश्चात् तुम्ही ले लेना, लो वसीयत किये देता हूँ", किसी सेठ के ऐसा कहने पर, क्या उसका कोई सेवक अपनी कुटिया में तुरन्त आग लगा देने को तैयार है ? 'चलो तुम्हें बी० ए० की डिग्री दिला देता हूँ परन्तु. आज सोना न होगा', ऐसा सुनकर क्या सोना त्याग देगा कोई ? वे महात्मा कोई दूसरे देश के वासी या कोई अलौकिकजन हों और त्याग करना उनके गले मढ़ दिया गया हो, क्योंकि मुक्त होने का सर्टीफिकेट प्राप्त कर चुके हैं इसलिए त्याग करना पड़ता हो उन्हें, ऐसा भी नहीं है । बाह्य में तो ऐसी कोई शक्ति दिखाई नहीं देती जो उन्हें छोड़ने को बाध्य करे और अन्तरंग से इस प्रकार छूटना सम्भव नहीं। क्या किसी राजा की आज्ञा मात्र से कोई अपना घर छोड़ने को तैयार होता है ? हाथ का एक छोड़कर वृक्ष के दो करना बद्धिमानों का काम नहीं और फिर तीर्थर प्रभु तो ठहरे ज्ञानी, वे क्यों ऐसा करने लगे? गृहस्थ में रहते हुए भी उन्हें किसी अनोखी शान्ति का वेदन होने लगता है पूर्व-भव के अभ्यासवश, जिस शान्ति के अलौकिक आकर्षण के सामने इस बाह्य राज्य आदि सम्पदा का तेज मन्द ही नहीं पड़ जाता बल्कि कटु लगने लगता है। वह सब वातावरण अन्दर से कोई जञ्जाल सा दीखने लगता है। वह साक्षात् कुछ ऐसा भासने लगता है कि मानो काटने को दौड़ रहा हो । बस इसी शक्ति की प्रेरणा पर आधारित है उनका त्याग। ३. अभ्यास की महत्ता-तीर्थङ्कर व महात्मा होने के कारण वे किसी दूसरे देश के वासी हों या किसी दूसरी जाति के हों, ऐसा भी नहीं है। मेरे ही देश के वासी तथा मेरी ही चैतन्य जाति के हैं । जो काम ये कर सकते हैं मैं भी कर सकता हूँ; परन्तु उनके त्याग को देखकर मुझे जो घबराहट होती है, उसका कारण यह है कि मैं यह समझ बैठता हूँ कि उन्होंने अकस्मात् ही इतना बड़ा साहस कर लिया है । इन्द्रिय-ज्ञान के द्वारा मैं उनका केवल वर्तमान भव ही देख पाता हूँ। इस वर्तमान के साहस के साथ भूतकाल में अर्थात् पूर्व-भवों में किया गया कितना अभ्यास है, वह मैं नहीं देख पाता । वे बिल्कुल मुझ जैसे गृहस्थ थे कभी, और सम्भवत: मुझसे भी हीन अवस्था में थे अपने पूर्व भवों में । वहाँ से ही धीरे-धीरे अतरंग में विरक्तता उत्पन्न करके अभ्यास प्रारम्भ किया था इन्होंने । आज जो अकस्मात् त्याग करता दिखाई दे रहा है, वह वही सिद्धहस्त जीव है । अत: भाई ! तू भी मत डर, साहस करके यदि ऊपर बताए प्रकरणों के अनुसार धैर्यपूर्वक अभ्यास करना प्रारम्भ करे तो अपने आगे आने वाले भवों में अवश्य ही अकस्मात् त्याग करने की शक्ति को उत्पन्न कर ले। कटड़ी (भैंस के बच्चे) को उठाते-उठाते भैंस उठाई जा सकती है, इसी से अभ्यास की इस मार्ग में बड़ी महत्ता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि 'भविष्य में कर लूँगा, आज के निकृष्ट-काल में तथा हीन-संहनन में करना सम्भव नहीं', ऐसे विचारों द्वारा शक्ति को छिपाया जाए। यदि आज कुछ न करेगा तो भविष्य में भी कुछ न कर सकेगा। विवेक ही न होगा तो करेगा कैसे? और यदि कदाचित् उत्तम-संहनन की प्राप्ति हो जाने पर किसी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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