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________________ ३१. श्रावक धर्म १. शान्ति का संस्कार; २. स्वाभाविक वैराग्य; ३. अभ्यास की महत्ता; ४. शल्य; ५. अणुव्रती; ६. सामायिक; ७. दोषों की सम्भावना; ८. अतिचार और अनाचार; ९. आगे बढ़। १. शान्ति का संस्कार-शान्ति का उपासक गृहस्थ उपरोक्त प्रकरणों में बताये विस्तार के अनुसार, अपने जीवन को इस नवीन दिशा की ओर घुमाकर नये साँचे में ढालने का अभ्यास करते हुए, कुछ ही वर्षों में एक नई उमङ्ग व उल्लास का अनुभव करने लगता है। एक जागृति सी तथा एक प्रकाश सा अन्तरंग में प्रकट भासने लगता है, जिसके उजाले में आज वह इस योग्य हो जाता है कि अपने वातावरण में छिपी हुई अशान्ति को स्पष्ट देख पाए। यद्यपि पहले से भी किसी विश्वास के आधार पर उसमें उसे किंचित् अशान्ति का भान हुआ करता था परन्तु इस दिशा में अभ्यस्त हो जाने तथा उसके फलस्वरूप शान्ति में वृद्धि हो जाने पर अथवा अन्तरंग में कछ दृढ़ता व शक्ति के संचार का अनुभव हो जाने पर, आज जिस जञ्जाल-रूप में इसे देखने लगता है उस प्रकार पहले कभी देख नहीं पाया था। विचार करते समय कुछ-कुछ हटाव सा अवश्य वर्ता करता था पर उस भोग विषयक सामग्री का साक्षात्कार हो जाने पर उस हटाव को भूलकर बह जाया करता था उसी की रौ में। इतने वर्षों के अभ्यास के कारण आज इतनी विशेषता उत्पन्न हो जाती है कि अब उनके साक्षात्कार के अवसरों में भी उसका वही भाव बना रहता है जो कि विचारणा के अवसरों में उसने बुद्धिपूर्वक बनाया था । अर्थात् संस्कार-निर्माण के पूर्वकथित क्रमानुसार इस हटाव का बुद्धिपूर्वक प्रारम्भ किया गया संस्कार आज अबुद्धि की कोटि में प्रवेश कर जाता है और पूर्व में पड़े हुए शान्ति के घातक संस्कारों के साथ युद्ध करने के लिए उन्हें ललकारने लगता है । यह ललकार ही उस बल की परीक्षा है जिसके सम्बन्ध में कहा जा रहा है। २. स्वाभाविक वैराग्य-कितने ही तीर्थङ्कर, वीतरागी-सन्त अथवा योगीजन समस्त राजपाट व देवों जैसी विभूति को छोड़कर वन को चले गये। क्या आकर्षण था उस वन में ? क्यों छोड़ा उस आकर्षक तथा मधुर सामग्री को जिसको छोड़ने की बात तो रही दूर, जिसके त्याग सम्बन्धी बात भी आज मुझको सुहाती नहीं । भले ही गुरुजनों के कहने पर मैं यह कहने लग गया हूँ कि इस सम्पत्ति में सुख नहीं दुःख है, पर क्या अन्तरंग में इसके प्रति इस प्रकार का भाव उठता प्रतीत होता है कभी ? नहीं अन्तरंग में तो उसके प्रति मिठास ही पड़ी है । अन्तरंग में तो यह बात सुन रहा हूँ कि “इनके भोगने में आनन्द है, बड़ी आकर्षक है यह, बड़ी मधुर तथा सुन्दर । यह देखिये मेरा ड्राइङ्ग-रूम कितना सुन्दर सजा हुआ है, दीवारों पर ईरानी कालीन टंगे हैं, यत्र-तत्र काश्मीर की कारीगरी का व काष्ठ का आर्ट टंगा है, मानों प्रकृति को समेट लाया है इस कमरे में, और यह सुन्दर सोफासैट मानो राज्य-सिंहासन की भी खिल्ली उड़ा रहा है। इधर रखा है चाइना आर्ट, और न जाने क्या-क्या? कितना आकर्षक है यह ? मुझे गर्व होता है अपने किसी मित्र को इसमें बिठाकर । कैसे कह सकते हैं कि इसमें दुःख है ? नहीं-नहीं, यह तो योगियों की बातें हैं, मेरे लिए तो यही सुखदायक है । कृत्रिम रूप से इसमें दुःख व अशान्ति देखने का प्रयत्न करते हुए भी स्वाभाविक-रूप से तो इसमें सुख व शान्ति सी ही भासती है, कैसे त्याD इसे? _ इनके क्या कहने, ये तो महान् आत्माएँ हैं, तीर्थङ्कर देव हैं, छोड़कर चल दिये घर-बार को तथा सम्पत्ति को, कष्ट सह-सहकर ही तो कर्मों को खपाएंगे। तपश्चरण के बिना मुक्ति किसे मिली है ? उस मुक्ति की साधना के लिये इतनी आकर्ष क व सख प्रद सामग्री को भी छोडकर चल दिये। धन्य हैं वे।" कछ ऐसी आवाजें उठा करती हैं भावुकतावश । बस ये आवाजें ही इस बात की साक्षी हैं कि मैं भले शब्दों में योगी जनों को महान् कहूँ या सुखी, पर उन्हें अन्तरंग से दुःखी ही समझता हूँ। कोई भी तो सुख का साधन नहीं है उनके पास, कैसे हो सकते हैं वे सुखी ? हाँ, भविष्य में मोक्ष जाकर हो जायें तो हो जायें, परन्तु अब तो दुःखी ही हैं बेचारे। नहीं प्रभु ! भूलता है, वास्तव में यह जो उपरोक्त आवाजें अपने अन्दर से उठती सुनाई दे रही हैं तुझे, उनका कारण केवल यही है कि उस अलौकिक चौथी कोटि की शांति का साक्षात्कार अभी कर नहीं पाया है तू । इसीलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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