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________________ ३०. दान २१२ ६. सामाजिक दान __दान दूसरे पर नहीं प्रत्युत स्वयं अपने पर अहसान करने के लिए दिया जाता है, क्योंकि दान का प्रयोजन है लोभ तथा राग का वर्जन, न कि इनका वर्द्धन, अहंकार की क्षति, न कि उसका पोषण, स्वामित्व-भाव का त्याग, न कि उसका ग्रहण, आकिञ्चन्य-भाव अर्थात् 'यहाँ कुछ भी मेरा नहीं है' ऐसा भाव । इस प्रकार के भावों की प्राप्ति तथा अभिवृद्धि में ही व्यक्ति का पारमार्थिक हित निहित है, और क्योंकि दान इस दिशा में बहुत सहायक है, इसलिये इसे गृहस्थ-धर्म का अत्यावश्यक अंग माना गया है। इसलिए जिस प्रकार देवपूजा आदि अन्य पाँच बातें तू अपने दैनिक जीवन में आवश्यक समझता है उसी प्रकार दान को भी समझ। जिस प्रकार देवपूजा किये बिना भोजन ग्रहण करना तू पाप समझता है उसी प्रकार दूसरे को खिलाये बिना स्वयं खाना भी पाप समझ। दान का दूसरा प्रयोजन है हृदय की उदारता । तेरा हृदय इतना विशाल होना चाहिए कि सकल विश्व तुझे अपना कुटुम्ब दिखाई दे, सबका सुख-दुःख तुझे अपना सुख-दुःख दिखाई दे, और क्योंकि इस भाव की अभिवृद्धि में दान सहायक है इसलिये यह गृहस्थ-धर्म का एक आवश्यक अंग है । अत: भो कल्याणार्थी ! तू लेने की बजाये देना सीख, मुक्त हस्त से दे, उदारता पूर्वक दे और दे-देकर प्रसन्न हो । ऐसा अभ्यास करते रहने से तुझे वह दिन प्राप्त हो जायेगा जब कि तू दूसरों के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करके साधु की भूमि में प्रवेश कर जायेगा जहाँ, आकिञ्चन्य भाव ही तेरा धन होगा और वही तेरा जीवन । 'त्याग' तथा 'आकिञ्चिन्य' का कथन आगे यथास्थान किया जाने वाला है । (दे० अधिकार ४२ तथा ४३) ६. सामाजिक दान यहाँ यह विचारना आवश्यक है कि प्रतिवर्ष सामाजिक रूप से कितना दान आप करते हैं और किस-किस दिशा में करते हैं ? वास्तव में दान को देखें तो बहुत होता है । परन्तु उससे कार्य कितना सिद्ध होता है, यह देखने जायें तो लज्जा से सर झुक जाता है । प्रतिवर्ष करोड़ों के दान का फल पर्याप्त नहीं होता । इस राशि का कुछ भाग तो जाता है शिक्षण संस्थाओं को, कुछ हस्पतालों तथा औषधालयों को, कुछ पत्र-पत्रिकाओं को, कुछ मन्दिरों तथा प्रतिमाओं के निर्माण कार्य को, कुछ पूजा-प्रतिष्ठा आदि विधानों को, कुछ धर्मशालाओं को, कुछ अनाथाश्रमों को, कुछ साहित्य प्रकाशन को, कुछ धर्म-प्रचार को और कुछ तीर्थ-क्षेत्रों की रक्षा को । इनके अतिरिक्त कुछ चला जाता है उन सेवा समितियों को जो गर्मी के दिनों में सड़कों पर प्याओ खोलती हैं प्यासों को पानी पिलाने के लिये मेले ठेलों के अवसरों पर भण्डारे लगाती हैं भूखों का पेट भरने के लिए, रोग-मरी दुर्भिक्ष आदि के दिनों में घर-घर जाकर अन्न तथा औषधियें बाँटती हैं, पीड़ितों का दुःख बटाने के लिये, स्वयं खतरा मोल लेकर जल तथा अग्नि में कूद पड़ती हैं बाढ़ पीड़ितों की अथवा अग्नि काण्ड पीड़ितों की रक्षा के लिए, राज्य विप्लवके दिनों में तम्बू लगाती हैं शरणार्थियों को आश्रय देने के लिये और न जाने क्या-क्या । यद्यपि अपने-अपने स्थान पर सभी का महत्व है, परन्तु देखना तो यह है कि इस विशाल धन-राशि का कितना भाग तो समाज के काम आ रहा है और कितना व्यर्थ जा रहा है । यदि इस राशि के व्यय की कोई केन्द्रीय व्यवस्था हो जाए तो एक बड़ा काम हो जाए और व्यर्थ का अपव्यय रुक जाए। इतना अवश्य है कि ऐसी व्यवस्था हो जाने पर दातार को स्वयं अपनी इच्छा का बलिदान करना होगा, सर्वजन-कल्याण को ही प्रमुख रखना होगा, केन्द्र की अनुमति को स्वीकार करने में ही हित देखना होगा और लोकेषणा को पीछे हटाना होगा । वास्तव में इन स्वार्थ पूर्ण भावनाओं का त्याग ही तो दान है, जो शान्ति पथ के इस छठे अंग का प्रयोजन है। अत: भो भव्य ! स्व-परकल्याणार्थ अपनी भावनाओं को निर्मल बनाकर सारे विश्व में तन, मन, धन से इस निर्मल मार्ग-का प्रसार कर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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