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________________ ३७. उत्तम-शौच २५२ ३. लोभ पाप का बाप उपासक धर्मी जीवों को पग-पग पर इसके प्रति सावधानी वर्तने की अधिकाधिक आवश्यकता है, क्योंकि जब तक इसका किंचित् भी संस्कार बीजरूप से अन्तरंग में पड़ा है, यह दुष्ट अंकुरित हुए बिना नहीं रहता । सन्यासी की ऊँची से ऊँची दशा में भी इसमें अंकुर फूट ही पड़ता है। तनिक सी असावधानी वर्तने पर, दीवार पर लगे हुए पीपल के अंकुरवत् यह कुछ ही समय में एक मोटा वृक्ष बन जाता है जो सारे मकान को खिला देता है और सम्पूर्ण मकान गिराये बिना उसका निर्मूलन असम्भव हो जाता है। अर्थात् संवर-प्रकरण में बताये गये तथा जीवन में उतारे गये सारे किये कराये पर पानी फेर देता है ? आन्तरिक ख्याति की महिमा जागृत करके, धन सम्बन्धी व ख्याति सम्बन्धी लोभ का दमन करने वाला वह महापराक्रमी योगी ही उत्तम-शौच करता है, उत्तम स्नान करता है, शान्ति-गङ्गा में स्नान करता है, उसके साथ तन्मय हो जाता है ऐसा कि फिर वह शान्ति भंग न होने पावे, पवित्र हो जाता है इतना कि फिर उसमें अपवित्रता आने न पावे । उसके जीवन को अपना आदर्श बनाकर चलने वाले भो पथिक ! तू भी इस पारमार्थिक गंगा में यथाशक्ति स्नान करके किञ्चित् शुचिता, निर्लोभता, नि:स्वार्थता या निष्कामता उत्पन्न कर । 1 KODOO लोभ और माया की कुटिल वासनाओं के चक्कर में फंसकर क्यों पतिव्रता शान्ति सुन्दरी को अन्तर्ग्रह से नीचे धकेल रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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