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________________ ३८. उत्तम-सत्य ( १. सत्यासत्य विवेक; २. दशविध सत्य; ३. परम सत्य। १. सत्यासत्य विवेक-पर-पदार्थों के प्रति अहंकार-बुद्धि रूपी असत्य संस्कारों के विजेता है सत्य स्वरूप प्रभु ! मुझको भी सत्य-जीवन प्रदान करें। आज उत्तम-सत्य-धर्म की बात चलती है। सत्य किसे कहते हैं और असत्य किसे, इस बात का निर्णय किए बिना 'जैसा देखा-सुना गया हो, वैसा का वैसा कह देना' लोक में सत्य कहा जाता है। परन्तु यहाँ उत्तम-सत्य की बात है साधारण सत्य की नहीं । जैसाकि उत्तम आर्जव-धर्म में बताया गया है, वचन का सत्य होना ही पर्याप्त नहीं है, सत्य होने के साथ-साथ उसका ऋत अर्थात् ऋज या सरल होना भी अत्यन्त आवश्यक है। पूर्वोक्त सभी अधिकारों की भाँति यहाँ भी अभिप्राय की मुख्यता है । सत्य असत्य का निर्णय अभिप्राय पर से किया जा सकता है। स्व-पर-हित का अभिप्राय रखकर की जाने वाली मन, वचन, काय की क्रिया सत्य है और स्व-पर-अहितकारी अभिप्राय रखकर या हिताहित का विवेक किये बिना की जाने वाली क्रिया असत्य है। वचन में ही सत्य या असत्य लागू होता हो, ऐसा नहीं है। मानसिक विकल्पों में, वचनों में तथा शरीरिक क्रियाओं में इन तीनों में ही सत्य व असत्य का विवेक ज्ञानीजन रखते हैं । लोक में तो केवल वचन सम्बन्धी सत्य की बात चलती हैं और यहाँ तीनों सम्बन्धी सत्य की बात है । मानसिक विकल्पों में किसी के प्रति हित होना. सत्य-मानसिक-क्रिया है और अहित की भावना अथवा हिताहित के विवेक-शून्य भावना प्रगट होना असत्य-मानसिक क्रिया है। अपने या अन्य के हित के अभिप्राय से अथवा सत्य-विकल्प-पूर्वक बोला जाने वाला वचन लौकिक रूप से असत्य होते हुए भी सत्य है और अपने या अन्य के अहित के अभिप्राय से अथवा असत्य-विकल्प-पूर्वक बोला जानेवाला वचन लौकिक रूप से सत्य होते हुए भी असत्य है। इसके अतिरिक्त स्व-पर-हितकारी वचन भी यदि कटु है तो दुखदायक होने के कारण असत्य हैं अत: हितरूप तथा मिष्टवचन बोलना ही सत्य-वाचिक क्रिया हैं । स्व-पर-हित के अभिप्राय अथवा मनोविकल्प सहित की जाने वाली शारीरिक क्रिया सत्य है और स्वपर अहित के अभिप्राय अथवा मनोविकल्प सहित की जाने वाली शारीरिक क्रिया असत्य है। अब इन तीनों क्रियाओं के कुछ उदाहरण सुनिये, जिनपर से कि उपरोक्न सर्व कथन का तात्पर्य समझ में आ जाए। सर्वप्रथम अभिप्राय की सत्यता को विचारिये। तीनों का स्वामी यह अभिप्राय ही है। अभिप्राय में पारमार्थिक-सत्य आ जाने पर तीनों क्रियाएँ स्वत: सत्य हो जाएंगी। अभिप्राय की असत्यता के कारण ही मेरे जीवन में क्रोधादि कषायों का, रागद्वेष का व चिन्ताओं का प्रवेश होता है। किसी प्रकार की भी कामना में रंगी प्रत्येक स्वार्थपूर्ण क्रिया कषाय-जनक होने के कारण असत्य है । स्वपर-भेदविज्ञान हुए बिना वास्तव में अभिप्राय में पारमार्थिक सत्य आना असम्भव है । 'शरीर, धन व कुटुम्बादि का उपकार या अपकार मैं कर सकता हूँ अथवा इसके द्वारा मेरा उपकार या अपकार हो सकता है ऐसा निश्चय बने रहना पारमार्थिक असत्य है, क्योंकि वस्तु का स्वरूप ऐसा है ही नहीं । वस्तु स्वतन्त्र है, स्वयं अपना कार्य करने में समर्थ है । वस्तु की स्वतन्त्रता का निर्णय न होने के कारण ही मेरे मन में ये विकल्प उठा करते हैं कि कुटुम्ब का पोषण मैं न करूँ तो कैसे हो, इस द्वेषी व शत्रु का विरोध न करूँ तो कैसे हो ? इन विकल्पों में से अंकुरित हो उठता है दूसरा विकल्प, यह कि धन न कमाऊँ तो कुटुम्बादि का पोषण कैसे हो? इन विकल्पों के आधार पर हो रही हैं आज की मेरी सर्व वाचिक व शारीरिक क्रियायें, जिनके कारण मेरा जीवन चिन्ताओं में जला जा रहा है।। व में सत्य-पुरुषार्थ का यह स्वरूप है ही नहीं। इस असत्य अभिप्राय के कारण पर में कुछ करने का पुरुषार्थ करते हुए, पर में तो कुछ कर नहीं पाता, हाँ अपने में ही कुछ विकल्प या चिन्तायें अवश्य उतपन्न कर लेता हूँ। इस पुरुषार्थ-हीनता को छोड़कर सत्य-अभिप्राय प्रकट करूँ तो पुरुषार्थ की दिशा ‘पर' से हटाकर 'स्व' पर आ जाए, सब विकल्प मिट जायें, शान्ति मिल जाए, जीवन सत्य बन जाए, उत्तम-सत्य का पालन होने लगे । वस्तु-स्वतन्त्रता का तथा उसकी कार्य-व्यवस्था का विस्तृत विवेचन दर्शन-खण्ड में किया जा चुका है । (देखो ९.४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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