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३८. उत्तम-सत्य
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२.दशविध सत्य
वस्तु की इस स्वतन्त्रता को देखते हुए भी भो भव्य ! क्यों तेरा अभिप्राय नहीं फिरता? पैदा होते ही एक झाड़ी में फैंक दी गयी कन्या पीछे भारत-सम्राट जहांगीर की पत्नी नूरजहां हो गयी। किसने किया उसका पोषण ? विमान से गिरे हनुमान की किसने की रक्षा ? 'यह संस्था मेरे बिना न चलेगी' यह कहते-कहते अनेकों चले गये, पर वह संस्था ज्यों की त्यों चल रही है। कौन करता है उसकी रक्षा ? पिता के अनेकों उपाय करने पर भी सौभाग्यवती मैनासुन्दरी का भाग्य किसने बनाया ? अरे भाई ! 'मेरे द्वारा कुटुम्ब का पोषण होता है' इस मिथ्या अभिमान को छोड़ । 'सब स्वतन्त्र रूप से अपना पोषण आप कर रहे हैं, अपना भाग्य स्वयं साथ लेकर आते व जाते हैं, मैं उनमें कुछ नहीं कर सकता', ऐसा सत्य-अभिप्राय बना। स्वार्थ-नाशक होने के कारण यही है वास्तविक सत्य, पारमार्थिक सत्य, उत्तम-सत्य।
मन सम्बन्धी सत्यासत्य क्रियाओं के उदाहरण अभिप्राय में ही अन्तर्भूत हो चुके हैं, अर्थात् उपरोक्त अभिप्राय के कारण मन में उठने वाले, 'पर' में करने-धरने आदि के स्वार्थपूर्ण विकल्प असत्य मनोविकल्प हैं और स्वतन्त्रता का अभिप्राय बन जाने पर निज में शान्ति वेदन का कार्य सत्य-मनोविकल्प है।
अब वचन-सम्बन्धी सत्यासत्य क्रिया के उदाहरण सुनिये । जैसा देखा-सुना या अनुभव में आया है केवल वैसा ही कह देना वास्तव में सत्य की पहिचान नहीं है । स्वपर-हितकारी, परिमित तथा मिष्टवचन ही सत्य हैं और इसके विपरीत असत्य । कोई व्यक्ति मुझसे कदाचित् आपकी चुगली करता हो और आप पीछे मुझसे पूछे कि यह व्यक्ति आपसे क्या कह रहा था, तो उस समय जो कुछ चुगली के शब्द उसने मुझसे कहे थे वे ज्यों के त्यों आपसे कह देना यहाँ शान्ति के मार्ग में सत्य नहीं है, असत्य है । और 'आपके सम्बन्ध में कुछ बात नहीं थी, कुछ और ही बात कहता था', अथवा 'आपकी प्रशंसा में इस प्रकार कहता था' ऐसा बोल देना भी यहाँ सत्य है । क्योंकि पहली बात से आपके हृदय में क्षोभ आ जाने की सम्भावना है और आपके तथा उस व्यक्ति के बीच द्वेष बढ़ जाने की सम्भावना है, अत: पहला वचन अहितकारी होने से असत्य है। दसरे वचन के द्वारा आपको सन्तोष आयेगा और आपके तथा उस व्यक्ति के बीच पड़ा वैमनस्य कुछ कम हो जायेगा, अत: हितकारी होने के कारण यह दूसरा वचन सत्य है । यह है वचन की सत्यता व असत्यता की परीक्षा । साथ-साथ इतना आवश्यक है कि वह वचन मधुर व हितकारी होना चाहिये और संक्षिप्त भी, ताकि तीसरा व्यक्ति सुनकर यह संशय न करने लगे कि ये परस्पर में बात कर रहे हैं या अनर्गल प्रलाप।
वचन की भाँति शरीर द्वारा की गई स्वपर-अहितकारी क्रियायें, इन्द्रिय-संयम वाले प्रकरण में कथित विषयासक्ति-युक्त तथा प्राण-संयम में कथित हिंसा आदि युक्त क्रियायें असत्य-शारीरिक व्यापार हैं । इनके विपरीत स्वपर-हितकारी अथवा संयमित क्रियायें सत्य-शारीरिक व्यापार हैं।
२. दशविध सत्य-लौकिक व्यवहार चलाने के अर्थ भी अनेकों अभिप्रायों के आधार पर वचन बोले जाते हैं, जो कि अभिप्राय की सत्यता के कारण सत्य और अभिप्राय की असत्यता के कारण असत्य समझे जाने चाहिये। जैसे- १. अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं में से किसी एक व्यक्ति या वस्तु की ओर लक्ष्य दिलाने के अभिप्राय से बोला जाने वाला वचन 'नाम-सत्य' है, भले ही उस नाम द्वारा प्रदर्शित होने वाले गुण उसमें हों या न
मैं आपके द्वारा 'जिनेन्द्र' नाम से पकारा जाता है। परन्त यदि यही नाम इन्द्रियों को जीतने वाले ऐसे जिनेन्द्र-भगवान के अभिप्राय से मेरे सम्बन्ध में कोई प्रयुक्त करने लगे, तो वही वचन असत्य होगा। २. चित्र या प्रतिमा में किसी की आकृति या रूप को देखकर, 'यह चित्र उस व्यक्ति का है' ऐसा न कहकर, 'यह अमुक व्यक्ति है' ऐसा कह देना 'रूप-सत्य' है। परन्तु इस प्रतिमा या चित्र को कोई वास्तव में व्यक्ति समझकर ही यह वचन कहे तो वही वचन असत्य होगा। ३. किसी भी पदार्थ में किसी अन्य पदार्थ की कल्पना करके, उसे वह पदार्थ बता देना 'स्थापना-सत्य' है, जैसे कि शतरंज के पासों में आकारादि न दीखने पर भी, 'यह हाथी है' इत्यादि कह देना सत्य है परन्तु कोई इस पासे को वास्तविक हाथी समझकर इसे हाथी कहे तो यही वचन असत्य होगा। ४. आगमकथित तथ्यों पर से 'यह ऐसे ही है' ऐसा विश्वास रखना 'आज्ञा-सत्य' है, जैसे कि छिन्न-भिन्न करने मात्र से किसी वनस्पति को अचित कह देना सत्य है, क्योंकि आगम की ऐसी ही आज्ञा है, यद्यपि सम्भव है कि छिन्न-भिन्न कर लेने पर भी इसमें अनेकों
दन्टियों कोन
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