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३८. उत्तम-सत्य
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३. परम-सत्य
जीव विद्यमान हों। परन्तु इसको वास्तव में वैसा ही समझ लेना अर्थात् सर्वथा अचित् समझ लेना या वैसा समझकर उसे अचित् कहना असत्य है। इसी प्रकार प्रमाणिक व्यक्तियों या आगम के विश्वास के आधार पर अनेक सूक्ष्म, दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के सम्बन्ध में यह कहना ‘कि ये ऐसे ही हैं', सत्य है, जैसे कि धर्मास्तिकाय आदि का साक्षात्कार न होने पर भी 'द्रव्य छ: ही हैं' यह कहना सत्य है । परन्तु बिना किसी आधार के युक्ति आदि द्वारा किञ्चित् भी निर्णय किये बिना, केवल पक्षपातवश ऐसा कह देना असत्य है । ५. अनेक कारणों से उत्पन्न हुए कार्य को किसी एक कारण से उत्पन्न हुआ कह देना सत्य है, जैसे कि 'किसान के द्वारा खेती बोई गई यह कहना सत्य है । परन्तु अन्य सब कारणों को भूलकर 'केवल किसान ने ही खेती बोई' ऐसा कहना असत्य है । ६. अनेक पदार्थों से मिलकर बने किसी पदार्थ को एक नाम से कह देना सत्य है, जैसे कि कुंकुमादि से बने पदार्थ को धूप कहना सत्य है । परन्तु इस नाम का कोई पृथक् सत्ताधारी पदार्थ समझकर धूप कहना असत्य है । ७. अनेक देशों में अपनी-अपनी भाषा के आधार पर एक ही पदार्थ को अनेक नामों से कहा जाना 'व्यवहार-सत्य' है, जैसे कि भारत में कहे जाने वाले 'ईश्वर' को इङ्गलैंण्ड में 'गॉड' शब्द द्वारा कहा जाना सत्य है । परन्तु 'ईश्वर पृथक् है और गॉड पृथक् है' ऐसा अभिप्राय रखकर कहे जाने वाले वही शब्द असत्य हैं। ८. किसी बात की सम्भावना को देखते हए 'ऐसा हो सकता है ऐसा कह देना 'सम्भावना सत्य' है, जैसे कि 'आज विश्व में युद्ध हो जाना सम्भव है' यह कह देना सत्य है । परन्तु युद्ध अवश्य होगा ही' ऐसा अभिप्राय रखकर यही वचन कहना असत्य है । ९. किसी की उपमा देकर, 'यह पदार्थ तो बिल्कुल वही है' ऐसा कह देना 'उपमा-सत्य' है, जैसे कि जवाहरलाल नेहरू जैसी कुछ आकृति व कुछ संस्कार देखकर, 'यह बालक तो जवाहरलाल है' ऐसा कह देना सत्य है । परन्तु बिल्कुल जवाहरलाल मानकर ऐसा कहना असत्य है । १०. किसी कार्य को करने का संकल्प मात्र कर लेने पर 'मैं यह काम कर रहा हूँ' ऐसा कहना 'अभिप्राय-सत्य' है। जैसे कि देहली जाने की तैयारी करते हुए 'मैं देहली जा रहा हूँ' यह कहना सत्य है । परन्तु वास्तव में इस समय रेल में बैठे हुए मैं देहली जा रहा हूँ' ऐसा अभिप्राय रख कर बोला हुआ यही वचन असत्य है । इस प्रकार अनेक जाति के अभिप्रायों के हेरफेर से अपने लौकिक व्यवहार में वचन सत्य होते हए देखे जाते हैं।
३. परम-सत्य-मन, वचन व कायगत इन व्यवहारिक सत्यों के ऊपर है वह पारमार्थिक सत्य जिसे मैं हार्दिक सत्य कहता हूँ, उस हृदय राज्य का सत्य जहाँ तक देह व इन्द्रियों की तो बात नहीं मन व बुद्धि भी पहुँच नहीं सकते। तत्त्व में अथवा उसके परम तेज में लय हो जाने के कारण इन सबकी सत्ता सत्ताहीन हो चुकी है यहाँ और सबका तेज तेजहीन । सबके प्रयोजन नि:शेष हो जाने से शून्यमात्र बनकर रह जाते हैं यहाँ । न रहते हैं संकल्प और न विकल्प, इसलिए न कुछ करने का प्रयोजन रहता है यहाँ और न कुछ कहने-सुनने तथा विचारने का। सब कुछ महासत्य में लय हो जाता है, रह जाता है केवल एक ज्ञाता-दृष्टा भाव और उसमें से उत्पन्न होने वाला सहज आनन्द-स्रोत । सकल विधि-निषेधात्मक द्वन्द्वों से अतीत हो जाता है वह, 'तमाशा देखने के तथा देखते रहने के अतिरिक्त कुछ भी कर्तव्य नहीं है अब उसका', इतना कहना भी उपचार है, क्योंकि यह तो उसका स्वभाव है न कि कर्तव्य । संकल्प-विकल्परूप मानसिक क्षोभ के नीचे दबा पड़ा था वह, उसके शान्त हो जाने के कारण अभिव्यक्त हो गया है अब । कुछ भी प्रयोजन नहीं है अब । उसको, न सत्य से और न असत्य से । सत्य भी असत्य है उसके लिए और असत्य भी सत्य है उसके लिये । बालकवत प्रयोजनहीन हो जाने के कारण उसे क्या पता कि सत्य क्या और असत्य क्या? सभी कछ खेल है उसके लिये। सत्य-निष्ठ हो जाने के कारण जिसका व्यक्तित्व स्वयं सत्य बन गया है, उस सत्य-मूर्ति के सत्य का लक्षण शब्दों द्वारा कोई कैसे करे ? बने सो जाने, खाये सो चखे।।
न है उसे कुछ करने का प्रयोजन और न मना करने की हठ । जिस प्रकार बालक को खेलने के अतिरिक्त अपनी ओर से अन्य कुछ भी करने का प्रयोजन नहीं, माता-पिता ने कह दिया तो कर दिया, नहीं तो न सही; इसी प्रकार इस महायोगी को भी जानने, देखने तथा आनन्द-मग्न रहने के अतिरिक्त अपनी ओर से अन्य कुछ भी करने का प्रयोजन नहीं, लोक-संग्रहार्थ कुछ करना पड़ा तो कर दिया, नहीं तो न सही। जिस प्रकार माता-पिता के अर्थ करने वाले बालक को उस कृत्य के अच्छे या बुरे परिणाम से कोई प्रयोजन नहीं, और इसलिए कार्य करके भी उससे अलिप्त रहता है वह; इसी प्रकार
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