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३८. उत्तम-सत्य
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३. परम-सत्य
लोक-संग्रहार्थ करने वाले उस महायोगी को भी उस कृत्य के अच्छे या बुरे परिणाम से कोई प्रयोजन नहीं, और इसलिए कर्म करके भी उससे अलिप्त रहता है वह । सब कुछ ईर्यापथ है उसके लिए, किया और समाप्त । इसलिए जिस प्रकार बालक को व्यवहार्य या अव्यवहार्य कुछ भी करके न तो किसी से भय होता है और न छिपने-छिपाने की आवश्यकता; इसी प्रकार उस महायोगी को भी व्यवहार्य या अव्यवहार्य कुछ भी करके, न तो किसी से भय होता है और न छिपने-छिपाने की आवश्यकता । इसीलिए अन्तिम सत्य है यह, सत्य व असत्य दोनों से अतीत पारमार्थिक सत्य है यह।
परन्तु अव्यवहारिक है यह स्थिति, केवल समता-मूर्ति महा-योगियों के सत्य-जीवन का संक्षिप्त सा परिचयमात्र है यह, न कि व्यवहारिक जनों के लिए अनुकरणीय । सत्य के पूर्वोक्त सोपानों के यथाक्रम अवलम्बन पूर्वक मनोगत तथा बुद्धिगत वासनाओं को क्षीण करके मन व बुद्धि को निश्चेष्ट किये बिना ऐसा होना सम्भव नहीं और इनके निश्चेष्ट हो जाने पर व्यक्ति जगत-व्यवहार के योग्य रहता नहीं।
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जिस प्रकार इस नारियल के भीतर इसकी सारभूत गिरी है
उसी प्रकार तेरे शरीर के भीतर सत्यस्वरूप चेतन है।
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