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________________ ३९. उत्तम-संयम ( १. यम व नियम; २. इन्द्रिय संयम; ३. प्राण संयम; ४. परम संयम। १. यम व नियम-भव-भव के दुष्ट संस्कारों का यमन करने वाले है अन्वर्थ संज्ञक वीतराग प्रभु ! मुझे यम प्रदान कीजिये । प्रतिक्षण होने वाली विकल्पात्मक अन्तर्मृत्यु को जीतकर मृत्यु की सर्वदा के लिए मृत्यु कर देने वाले, मृत्युञ्जयपद को प्राप्त हे यमराज ! मुझको भी अपनी शरण में लीजिये । ओह ! कैसी अनोखी बात है कि जिस यमराज से जगत कांपता है, आज उसकी शरण में जाने की प्रार्थना की जा रही है । विस्मय मत कर प्रभु ! यमराज से डरने वाला मोह से ग्रसित जगत वास्तव में जानता ही नहीं कि यमराज कौन है ? लोक में तो यमराज का अत्यन्त भयानक काल्पनिक चित्रण खेंचा गया है, पर ऐसा वास्तव में नहीं है । यमराज का स्वरूप सुन्दर है, अत्यन्त शान्त है, लोक में साने वाला है। दष्ट संस्कारों का यमन करके जिन्होंने मत्य की भी मत्य कर दी है. ऐसे वे महा मृत्युञ्जय सिद्ध प्रभु ही वास्तविक यमराज हैं, उनकी शरण में जाने की बात है अर्थात् स्वयं यमराज बनने की बात है। भय को अवकाश नहीं, उत्साह उत्पन्न कर । आज संयम का प्रकरण चलता है। संयम अर्थात् सम्यक् प्रकार यमन करना, नियन्त्रित करना, संस्कारों को। वैसे तो संयम के सम्बन्ध में अब तक बहुत कुछ कहा जा चुका है परन्तु अभी भी पर्याप्त नहीं है । संयम दो प्रकार का है—एक संस्कारों की पूर्ण-मृत्यु रूप और दूसरा किञ्चित्-मृत्युरूप । पूर्ण-संयम को यम और किञ्चित-संयम को नियम कहा जाता है। अर्थात् अत्यन्त पराक्रमी जीवों द्वारा संस्कारों का जीवन पर्यन्त के लिए धुतकारा जाना यम है और अल्प-शक्तिवाले जीवों के द्वारा उनका सीमित समय के लिए पन्द्रह मिनट के लिए, या आध घण्टे के लिए,या पाँच सात दिनों या महीनों या वर्षों के लिए आंशिक रूप में धुतकारा जाना नियम कहलाता है। अब तक जितना भी कथन चला था वह सब नियम था क्योंकि मन्दिर के अनुकूल वातावरण में आध-पौन घण्टे-मात्र तक की सीमा के लिए करने में आता था, अथवा व्रत लिये बिना अर्थात् व्रत वाले प्रकरण में बताए गए 'तो' रूप शल्य के निकाले बिना केवल अभ्यास रूप में किया जा रहा था। उसी अभ्यास के कारण शक्ति की वृद्धि हो जाने पर वह नियमी बन जाता है यमी, संयमी अर्थात् संन्यासी । तब उसके बल व पराक्रम के क्या कहने ? मनकी कुछ भी तीन-पाँच नहीं चलती है अब उसके सामने।। ___ इस दशा को प्राप्त होकर वह यमी बाह्य में प्रकट होने वाले सम्पूर्ण स्थूल संस्कारों की शक्ति का विच्छेद कर देता है, और पुन: वे अंकुरित न होने पावें इस प्रयोजनवश अनेकों कड़ी-कड़ी प्रतिज्ञायें धारण कर लेता है । 'जीवन जाए तो जाए पर यह प्रतिज्ञा अब भङ्ग न होने पाए' ऐसी दृढ़ता है आज उसकी अन्तर्गर्जना में। वह यमराज बनने को निकला है। वीरों का वीर यह यद्यपि पहले ही से इन्द्रियों को वश में कर चका था और प्राणियों को भी पीडा देने का उसे अवसर प्राप्त नहीं होता था पर आज उसका वह इन्द्रिय व प्राण-संयम पूर्णता की कोटि को स्पर्श कर चुका है। २. इन्द्रिय-संयम घरबार को तथा राज्यपाट आदि को लात मारकर पूर्ण संन्यासी हो गए हैं वे आज । वन में अकेले वास करने वाले वे बाह्य के तो सम्पूर्ण विषयों का त्याग कर ही चुके हैं, अन्तरङ्ग में भी इन्द्रियों को पूर्णतया जीत चुके हैं । विषयों में आवश्यक अनावश्यक का कोई भेद नहीं रह गया है अब उनके लिए । सकल विषय अनावश्यक बन चुके हैं आज उनके लिए। स्पर्शनेन्द्रिय को ललकारते हुए यथाजात नग्न-वेष धारण किया है उन्होंने। गरमी, सर्दी, बरसात, मच्छर-मक्खी आदि की बाधाओं से बचने का अब किञ्चित मात्र भी विकल्प शेष नहीं रहा है उनमें, जिसकी घोषणा कि उनके शरीर की नग्नता कर रही है । इस नग्न अवस्था में भी बिना किसी आश्रय के केवल आकाश की छत के नीचे, बीहड़ वनों में अथवा भयानक श्मशानों में, सर्दी की तुषार बरसाती रातों के बीच, उनकी निश्चल व निर्भीक ध्यानस्थ अवस्था उनके पूर्ण स्पर्शन-इन्द्रिय-विजेतापने का विश्वास दिला रही हैं । गर्मी की आग बरसती दोपहरियों में, तप्त बालू पर खुले जाज्वल्यमान आकाश के नीचे धारा हुआ उनका आतापन योग, शरीर के प्रति उनकी अतीव निर्ममता का द्योतक है। आज दिशायें ही उनके वस्त्र हैं, इसके अतिरिक्त और कृत्रिम वस्त्रों की उन्हें आवश्यकता नहीं। मैथुन भाव पर उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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