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________________ ३९. उत्तम-संयम २५८ ३. प्राण-संयम जय घोषणा करने वाली निर्विकार शान्त-आभा मुझे स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय पर उनकी पूर्ण विजय का दृढ़ विश्वास दिला रही है । शरीर मैला-कुचैला साफ-सुथरा कैसा भी रहे, सब समान है आज उनके लिये। महीनों-महीनों के उपवास के पश्चात् भी, आकुल या आसक्त-चित्त से गृद्धतासहित आहार की ओर दृष्टि नहीं उठाना, तथा अन्तराय या काई भी बाधा आ जाने पर शान्तिपूर्वक आहार-जल का त्याग करके पुन: वन को लौट जाना, उनकी जिह्वा-इन्द्रिय पर पूर्ण विजय का प्रदर्शन कर रहा है । आहार लेते समय भी स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट में, नमक सहित या नमक रहित में, मीठे या खट्टे में, चिकने या रूखे में, गरम या ठण्डे में, उनकी मुखाकृति का एकीभाव उनकी अन्तर्साम्यता व रस-निरपेक्षता की घोषणा करता हुआ उन्हें जिह्वा-इन्द्रिय विजयी सिद्ध कर रहा है । रोम-रोम को पुलकित कर देने वाला सर्वसत्व-कल्याण की करुणापूर्ण भावनाओं से निकला, उनका हितकारी व अत्यन्त मिष्ट सम्भाषण, वचन पर उनका पूर्ण नियन्त्रण दर्शाता हुआ उनके पूर्ण जिह्वा-इन्द्रिय-विजयी होने का विश्वास दिला रहा है। विष्टा के पास से गुजरते हुए भी उनकी मुखाकृति की सरलता व शान्तता का निर्भङ्ग रहना, किसी कुष्टी आदि के ग्लानिमयी शरीर को देखकर भी उनकी आँख का दूसरी ओर न घूमना तथा किसी उद्यान के निकट से जाते हुए या वहाँ बैठे हुए आने वाली धीमी-धीमी सुगन्धि की ओर उनके चित्त का आकर्षित न होना, मुखाकृति पर किसी सन्तोष-विशेष के चिह्न न दीखना उनके पूर्ण नासिका-इन्द्रिय-विजयीपने को सिद्ध करता है। दुर्गन्धि व सुगन्धि में साम्यभाव उनकी पूर्ण-वीतरागता का तथा शान्ति के रसास्वादन का प्रतीक है, जिसके कारण कि उन दोनों में उन्हें भेद भासता नहीं। तीखे कटाक्ष करती, शृङ्गारित रम्भा व उर्वशी सी सुन्दर युवतियों के सामने आ जाने पर भी विकृत दृष्टि से उधर ना अथवा महा-भयानक कोई विकराल रूप दीख पड़ने पर भी उनकी आभा में कोई अन्तर न पड़ना, आहारार्थ चक्रवर्ती के महल में या साधारण-जन की कुटिया में प्रवेश करते उनका गौवत् समान भाव में स्थित रहना, उनके पूर्ण नेत्र-इन्द्रिय-विजयी होने की घोषणा कर रहा है। सुन्दर-असुन्दर, मनोज्ञ-अमनोज्ञ सब समान है आज उनके-लिए। निन्दा व स्तुति दोनों में समान रहने वाली उनकी समबुद्धि, निन्दक व वन्दक दोनों के लिए समान रूप से प्रकट होने वाली कल्याण की भावना तथा दोनों के लिए मुख से एक शान्त मुस्कान के साथ निकला हुआ 'तेरा कल्याण हो' ऐसा आशीर्वचन उनके पूर्ण कर्णेन्द्रिय-विजयी होने का द्योतक है। इन सबके अतिरिक्त स्वर्ण व कांच में तथा हानि व लाभ में रहने वाली उनकी साम्यता, निर्लोभता व निष्कपटता उनके पूर्ण-निष्परिग्रहीपने का, पूर्ण-त्यागीपने का आदर्श उपस्थित करती है । शत्रु व मित्र में समानता उनकी क्षमा को, और अनेकों गुणों तथा चमत्कारिक ऋद्धियों के या शक्ति-विशेषों के होते हुए भी उन्हें प्रयोग में न लाना उनकी निरभिमानता व क्षमता का द्योतक है। कहाँ तक कहें, ये वीतरागी साधु जिनको कि मैंने आदर्श स्वीकार किया है, पूर्ण-संयमी हैं, पूर्ण-इन्द्रिय-विजयी हैं, पूर्ण-कषाय-विजयी हैं। ३. प्राण-संयम-इन्द्रिय-संयम के अतिरिक्त प्राण-संयम भी पूर्ण हो जाता है यहाँ । संयम-अधिकार के अन्तर्गत कथित जीव हिंसा के १२९६० विकल्पों का (देखो २६.८) पूर्ण त्याग कर देते हैं वे, अर्थात् जो कुछ भी कमी रह गई थी उसे भी दूर करके पूर्णरूपेण प्राण-संयमी बन जाते हैं वे । मनुष्य से लेकर चींटी पर्यन्त चलने फिरने वाले त्रस-जीवों की तो बात क्या, स्थावर-जीवों की हिंसा भी पाप है आज उनके-लिए। वायुकायिक जीवों को बाधा न हो इस अभिप्राय से पंखा नहीं झलते हैं वे, वनस्पति-कायिक जीवों को पीड़ा न हो इस अभिप्राय से घास का एक तिनका भी तोड़ना स्वीकार नहीं करते हैं वे । क्या बतायें उनकी दयालुता, पृथ्वी तथा जल को बाधा पहुँचाना तक सहन नहीं है आज उन्हें । इसीलिए न कभी जल में गमन करते हैं और न मिट्टी आदि लेने के लिए पृथ्वी करेदते हैं वे । धन्य है उनकी आदर्श करुणा। गहस्थ दशा में उन्हें केवल संकल्पी-हिंसा का त्याग था. उद्योगी तथा आरम्भी हिंसा कम से कम हो ऐसा यत्न मात्र करते थे, परन्तु उसका सर्वथा त्याग नहीं था। अपनी, अपने कुटुम्ब की तथा अपने देश की रक्षा के लिए चोर-डाकुओं तथा आतताइयों के साथ युद्ध करते समय विरोधी हिंसा अनिवार्य करनी पड़ती थी उन्हें । परन्तु यहाँ इन तीनों का भी पूर्ण त्याग हो जाता है। साधु के पास न है कुछ उद्योग व आरम्भ, न व्यापार-धन्धा और न घरबार का कामकाज । धन, गृह-कुटुम्बादि को छोड़ देने के कारण अन्य कोई वस्तु या देश उनके पास है ही नहीं, जिसे कि चोर-डाकु लूट सकें या जिसके लिए आततायी आक्रमण कर सकें। अब लोक की बड़े-से-बड़ी बाधा भी उनकी शान्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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