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३९. उत्तम-संयम
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४. परम-संयम
है, वह
में विघ्न डालने को समर्थ नहीं। उनका कर्तव्य बदल चुका है अब, उनका शरीर बदल चुका है अब, उनकी सम्पत्ति बदल चुकी है अब, उनका कुटुम्ब बदल चुका है अब, उनका देश बदल चुका है अब । आज ज्ञान उनका शरीर है, शान्ति उनकी सम्पत्ति है, वैराग्य, समता, मैत्री, उत्साह, उल्लास उनका कुटुम्ब है, विवेक उनका देश है । इनमें से किसी भी वस्तु को न तो चोर डाकू चुराने के लिए समर्थ हैं और न कोई आततायी इन पर आक्रमण करने को समर्थ है । तब किसे समझें वे अपना शत्रु ? उनके ज्ञान शरीर पर चलने के लिए कोई हथियार ही नहीं । गर्मी, सर्दी, बरसात आदिरूप प्राकृतिक बाधाएँ हों या हों मक्खी-मच्छर आदिकृत उपद्रव, पशु-पक्षी आदिकृत संकट हों या हों अज्ञानी-जनों कृत उपसर्ग, उनके मुख-मण्डल पर फैली मधुर मुस्कान का भेद करने को कोई समर्थ नहीं।
और तो कुछ उनके पास है नहीं जिस को उनसे छीना जा सके, एक शरीर है परन्तु वह है अलौकिक । तिल-तिल करने के लिए तैयार हो कोई इसके, कोल्हू में पेलने के लिये उद्यम हुआ हो कोई इसको, अथवा जीवित भस्म कर देने का भाव लेकर आया हो कोई इसे, कुत्तों के द्वारा नुचवाने के लिए दही छिड़कता हो कोई इस पर, दीवार में चिनने लगा हो कोई इसे, परन्तु उन्हें क्या चिन्ता, उन्हें क्या भय ? अपने द्वेष की आग जिस वस्तु पर, जिस शरीर पर बुझाई जा रही
का है ही नहीं अब, उससे ममत्व है ही नहीं अब, फिर उस विद्वेषी के प्रति उन्हें द्वेष क्यों हो, घुणा क्यों हो, क्रोध क्यों हो, इससे मुकाबला करने की भावना क्यों हो? वह बेचारा रंक स्वयं नहीं जानता कि क्या है इस योगी के पास जिसको छीनने से कष्ट हो सकेगा इन्हें । उसको तो दिखाई देता है यह चमड़े का शरीर, जिसे बाधा पहुँचने पर स्वयं उसे प्रतीत होती है बाधा । उसी तुला पर तोलता है आज वह इस परम योगेश्वर की सम्पत्ति को, शान्ति को, और यदि पता भी हो उसे तो इसके छीनने में बिल्कुल असमर्थ है वह । इसलिए क्यों समझें वे योगी उसे शत्रु ? वह तो बेचारा है रंक, द्वेष की अन्तर्दाह में नित्य जलते रहने के कारण स्वयं बहुत दुःखी । वह तो है उस योगी की करुणा का पात्र, विरोध का नहीं। उसके लिए भी उस योगी के मुख से निकलता है कल्याणात्मक आशीर्वाद जैसे कि एक भक्त के लिए। यह है साधु की पूर्ण अहिंसा, उनका पूर्ण प्राण-संयम।
४. परम-संयम इससे भी ऊपर है संयम तथा असंयम से अतीत उनका वह परम संयम जिसे साक्षात् अमत-कम्भ कहा गया है। जिनके मन तथा बद्धि मर चके हैं, जिनके समस्त संकल्प-विकल्प परम सत्य में विलीन हो चुके हैं, उनके लिए क्या संयम और क्या असंयम ? सबं बच्चों का सा खेल है अब उनके लिए। जिस प्रकार एक बालक के लिए स्वयं राजा बनकर चोर को दण्ड देना भी वैसा ही है जैसा कि स्वयं चोर बनकर राजा से दण्ड पाना उसी प्रकार सत्य-स्वरूप उस महायोगी के लिए संयम-युक्त होकर रहना भी वैसा ही है जैसा कि संयम विहीन होकर रहना । त्याग भी उनके लिए वैसा ही है जैसा कि ग्रहण । जिस प्रकार कोई रोगी रोग-वर्धक कारणों से बचने के लिए अपने ऊपर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाता है परन्तु रोग शान्त हो जाने पर उन सब प्रतिबन्धों का त्याग करके हल्का हो जाता है; उसी प्रकार शान्ति-पथ का साधक अध्यात्म योगी विकल्प-वर्धक कारणों से बचने के लिए अपने ऊपर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाता है परन्तु विकल्प-रोग शान्त हो जाने पर उन सर्व प्रतिबन्धों का त्याग करके हलका हो जाता है । जिस प्रकार रोग-मुक्त हो जाने पर वे त्यक्त पदार्थ अब उस व्यक्ति को बाधा कारक नहीं होते हैं, उसी प्रकार विकल्प-मुक्त हो जाने पर सकल त्यक्त पदार्थ अब उस महा-योगी को बन्धकारक नहीं होते हैं । रोग-मुक्त हो जाने पर भी वह व्यक्ति यदि उन पदार्थों के त्याग की हठ न छोड़े तो उसका वह त्याग ही उसके लिए महा-रोग बन जाता है, उसी प्रकार विकल्प-मक्त हो जाने पर भी वे महा-योगी यदि उन पदार्थों के त्याग की हठ न छोड़ें उनका वह त्याग ही उनके लिए महा-विकल्प बन जाता है । दोनों ओर से सन्तुलित रहना ही स्वास्थ्य है।
इसलिए समतारूप सत्य-भूमि में प्रविष्ट महा-योगी सकल प्रतिबन्धों से मुक्त हो जाते हैं और यही है पारमार्थिक असंयमरूप उनका संयम, संयम असंयम से अतीत तृतीय भूमि । परन्तु अव्यवहारिक है यह, मन बुद्धि से अतीत समता भोगी के लिए अमृत कुम्भ होते हुए भी मन बुद्धि के जगत में रहने वाले व्यावहारिक जनों के लिए विषकुम्भ है यह । संयम के पूर्वोक्त विविध सोपानों के यथाक्रम अवलम्बन-पूर्वक मनोगत तथा बुद्धिगत वासनाओं को क्षीण करके मन व बुद्धि को निश्चेष्ट किये बिना ऐसा होना सम्भव नहीं, और इनके निश्चेष्ट हो जाने पर व्यक्ति जगत-व्यवहार के योग्य रहता नहीं। ।
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