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४०. उत्तम - तप
१. परिचय; २. षड्विध बाह्य तप; ३. षड्विध आभ्यन्तर तप ।
१. परिचय—सर्व बाह्य व आभ्यन्तर संग से मुक्त हे एकान्तवासी गुरुदेव ! मुझको भी विकल्पों से मुक्त करके निज एकान्त शान्ति का आवास प्रदान कीजिये । गृहस्थोचित सामान्य - तप का तथा शक्ति व परिस्थिति के अनुसार मानस तप का उल्लेख पहले किया जा चुका है। वहाँ यह संकेत किया गया था कि अभ्यास के द्वारा शक्ति में वृद्धि हो कुछ अन्य प्रकार के भी बाह्य तथा आभ्यन्तर तप योगी जन किया करते हैं। उन तप-विशेषों का उल्लेख करना ही यहाँ प्रयोजनीय है । वहाँ विस्तार सहित यह बात बताई जा चुकी है कि 'तप' शब्द का अर्थ है वह प्रबल पुरुषार्थ जो कि साधक संस्कारों का मूलोच्छेद करने के लिए किया करता है; अर्थात् प्रतिकूल वातावरण में जाकर सुप्त संस्कारों को जगाना, उन्हें ललकारना तथा पूरी शक्ति से उनके साथ युद्ध ठानना । बहुत बल की आवश्यकता है इसके लिए जो प्राय: योगी जनों में ही होना सम्भव है, तथापि अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार गृहस्थ भी हीनाधिक रूप में उन्हें करे तो उसे किसी अचिन्त्य लाभ की प्राप्ति होती है ।
संस्कार दो प्रकार के हैं - एक तो वे जिनका कि क्षेत्र है बाहर का यह स्थूल शरीर और दूसरे वे जिनका क्षेत्र है आभ्यन्तर का सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन, बुद्धि आदि। पहले संस्कारों का कार्य है शारीरिक पीड़ाओं में मुझे शान्ति तथा समता से बलपूर्वक विचलित करके उन पीड़ाओं के चिन्तवन में अटका देना। दूसरे संस्कारों का कार्य है मेरे भीतर विविध प्रकार की इच्छायें, अथवा वासनायें जाग्रत करके मुझे विविध प्रकार के विषय - चिन्तवन में नियोजित कर देना । अतः तप भी दो प्रकार का होना स्वाभाविक है— एक बाह्य-तप जिसका प्रयोजन है बाह्य क्षेत्रवर्ती संस्कारों का मूलोच्छेद करना और दूसरा आभ्यन्तर तप जिसका प्रयोजन है आभ्यन्तर - क्षेत्रवर्ती संस्कारों को नष्ट करना । दोनों ही प्रायः छः-छः प्रकार के हैं । बाह्य तप में सम्मिलित हैं—अनशन, अवमौदर्य या ऊनोदरी, वृत्ति - परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त- शय्यासन और कायक्लेश । आभ्यन्तर तप में सम्मिलित हैं—प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । इन सबका उल्लेख क्रम से किया जाने वाला है। अधिक विस्तार न करके संक्षेप से ही परिचय देने का प्रयत्न करूँगा ।
२. षड्विध बाह्यत — तप के सामान्य स्वरूप का विवेचन करते हुए यह बताया जा चुका है कि शान्ति तथा की प्राप्ति के लिए साधक शारीरिक पीड़ाओं की चिन्ता नहीं करता । शरीर को शान्ति तथा समता के उत्पादनार्थ गाई गई मशीन से अधिक कुछ नहीं समझता। अपनी शक्तियों को न छिपाता हुआ पूरे उत्साह के साथ बराबर आगे बढ़ता जाता है निर्भय, एक महा-सुभट की भाँति, संस्कारों के साथ युद्ध करता । ज्यों-ज्यों विजय प्राप्त करता है उन पर, त्यों-त्यों वृद्धि होती चली जाती है उसकी शक्ति में, उत्साह तथा उल्लास में। बस स्थिरता का चारजामा कस, तप के हथियार सजा, कूद पड़ता है वह युद्धस्थल में और ललकारता है एक-एक शारीरिक पीड़ा को । जान बूझकर उत्पन्न करता है उन्हें, जानबूझकर प्रवेश करता है उनमें। और तो सर्व आवश्यकतायें व इच्छायें पहले ही त्याग चुका है वह, केवल एक आवश्यकता शेष रह गई है उसकी, और वह है भोजन सम्बन्धी । इसलिये उसके सर्व ही संस्कार आज एकत्रित होकर इस ही दिशा में अपना बल दिखा सकते हैं, और वह योगी भी इसी के आधार पर सर्व अभिलाषाओं के संस्कार- विच्छेद सम्बन्धी पुरुषार्थ कर सकता है। अतः भोजन की मुख्यता से इन तपों का वर्णन किया जायेगा यहाँ, पर इसका यह अर्थ नहीं कि ये भोजन- सम्बन्धी अभिलाषाओं पर ही लागू होने वाले हैं। प्रत्येक अभिलाषा पर यथायोग्य रूप से लागू करके हम उस उस जाति के संस्कारों का विच्छेद कर सकते हैं। जैसे कि 'योगी का आहार छोड़कर उपवास करना' और इसी प्रकार आप यदि कर सकें तो 'एक दिन या कुछ महीनों के लिए अपना धनोपार्जन छोड़कर लोभ या वित्तेषणा के त्यागरूप उपवास करना' एक ही बात है। पहले से छूटती है भोजन की अभिलाषा और दूसरे से छूटती है धन की अभिलाषा । इस प्रकार किसी भी दिशा में लागू किये जा सकते हैं ये तप के भेद ।
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