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४०. उत्तम-तप
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३. षड्विध आभ्यन्तर तप
स्व-अध्ययन किया करते हैं, परन्तु उतने मात्र अवसर के लिए आपको भी उसी भावना का आंशिक वेदन हो जाने के कारण, इस अल्प भूमिका में भी 'स्वाध्याय' नामका तप कहलायेगा।
(५) पाँचवाँ आभ्यन्तर तप है 'व्युत्सर्ग' या त्याग । यथार्थ व्युत्सर्ग तो योगियों को ही होता है जिन्होंने इस गृहस्थ के सर्व जंजालों से मुँह मोड़ लिया है, यहाँ तक कि साथ-साथ रहने वाले इस शरीर से भी अन्तरङ्ग से नाता तोड़ दिया है। इस पर अनेकों बाधायें, क्षुधादि की अथवा मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत, देवकृत व प्रकृतिकृत उपसर्गों की, आ पड़ने पर भी वे कछ परवाह नहीं करते इसकी। धीर वीर बने अपने आन्तरिक सख में बराबर मग्न रहते हैं। परन्त इस अल्प भूमिका में एक गृहस्थ को भी हो सकता है यह । इन्द्रिय-संयम के प्रकरण में बताये अनुसार यथायोग्य विषयों का त्याग करने के अतिरिक्त (देखो २६.५) वह त्याग करता है दान के रूप में जिसका कथन पहले किया जा चुका है और योगियों को दृष्टि में रखकर पुन: आगे किया जाने वाला है 'उत्तम त्याग के प्रकरण में।
(६) छठे आभ्यन्तर तप का नाम है 'ध्यान' सर्व तपों में प्रधान, सब तपों का राजा, जिसका कथन आगे पृथक् अधिकार में किया जाने वाला है ।
अहिंसा
परमात्मपद
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संयम ही परम तप है। संयम अहिंसा है, संयम सत्य है, संयम विश्व प्रेम है,
संयम चित्त विश्रान्ति है और संयम ही परम पद है।
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