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४१. ध्यान
१. ध्यान सामान्य; २. ध्यान विधि; ३. आर्त्तरौद्र ध्यान; ४. धर्म ध्यान; ५. मन्त्र जाप्य; ६. स्तोत्र पाठ; ७. भावना भावन; ८. तत्त्व-चिन्तन; ९. निरीह वृत्ति; १०. पदस्थादिध्यान; ११. शुक्ल ध्यान।
१. ध्यान सामान्य अन्तिम तप का नाम है 'ध्यान' और यही है शान्तिपथ का प्राण, जिसकी सिद्धि के अर्थ देव पूजा आदि का सर्व अभ्यास अब तक करता आ रहा है। ध्यान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता, उसकी वृत्तियों का निरोध, अर्थात् विविध विषयों में नित्य यत्र-तत्र भटकते रहने की उसकी जो अनादिगत टेव है उसको तिलाञ्जली देकर वह हो जाए स्थिर, शान्ति-प्रवर्धक किसी भी एक विषय के चिन्तवन में अथवा निर्विषय तूष्णी अवस्था में और विश्राम करे विकल्पों की ज्वालामुखी से दूर शान्ति के शीतल-सर में । शान्ति-पथ की यह सबसे कठिन साधना है क्योंकि बिना लगाम वाले उच्छृङ्खल घोड़े की भाँति अनादि काल से आज तक जिसका सर्व जीवन भाग दौड़ में ही बीता हो, विविध विषयोंमें भटकते रहना ही जिसका स्वभाव हो, ऐसे चित्त या मन को वश करना कोई हँसी-खेल नहीं, बड़े-बड़े योगी हार मानते हैं इससे । इसलिए कुछ विस्तार माँगता है यह विषय।
___ जिस प्रकार लाठी की शक्ति से भ्रमण करने वाला कुम्हार का चक्र लाठी को हटा लेने मात्र से तुरन्त रुक नहीं जाता प्रत्युत लाठी की शक्ति से उत्पन्न अपने वेगाख्य-संस्कारवश कुछ समय पर्यन्त स्वत: पूर्ववत् घूमता रहता है, उसी प्रकार विषय-जन्य इच्छा कामना अथवा वासना की शक्ति से भ्रमण करने वाला मन विषय के हटा लेने मात्र से तुरन्त रुक नहीं जाता प्रत्यत वासनाशक्ति-द्वारा उत्पन्न अपने वेगाख्य-संस्कारक्श कछ काल पर्यन्त स्वत: पूर्ववत भ्रमण करता रहता है विविध विकल्पों में। इसका कारण है यह कि नेत्रादि बाह्य इन्द्रियों की भाँति इस आभ्यन्तर-इन्द्रिय का विषय बाहर में नहीं, स्वयं उसके भीतर स्थित है। अन्दर बैठा-बैठा वह स्वयं बुना करता है कल्पनाओं का जाल । क्षण भर में कोटा-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन कर देने वाला यह मन ही है भगवान ब्रह्मा, और अगले क्षणों में सब कुछ अपने में लय करने वाला भगवान शिव, जगत का कर्ता, धर्ता व संहर्ता, सृष्टा धाता व विधाता। विशाल है इसका राज्य जिसका ओर है न छोर । स्वयं रचना और स्वयं निगल जाना । विषयजन्य यह कामना या वासना ही है उसकी प्रधान शक्ति; सांख्य की प्रकृति और वेदान्त की अनिर्वचनीया माया ।
जिस प्रकार लाठी को हटा लेने से कुम्हार का चक्र कुछ समय पर्यन्त घूमता रहकर संस्कार क्षीण हो जाने पर रुक जाता है स्वयं, उसी प्रकार इच्छा कामना व वासनारूप इस अचिन्त्य शक्ति के हटा लेने से मन कुछ काल पर्यन्त भ्रमण करता रहकर संस्कार क्षीण हो जाने पर रुक जाता है स्वयं । २४ घण्टे घर तथा दुकान सम्बन्धी व्यवहार या व्यापार में रत रहने वाले मन से कुछ समय के लिए निश्चल हो जाने की आशा करना दुराशा है और इसीलिए प्राय: सब यह कहते सुने जाते हैं कि ध्यान करते समय मन का निश्चल होना तो दूर उसकी गति इतनी बढ़ जाती है कि हृदय रो उठता है। कैसे-कैसे जगत बसाता है उस समय यह और बसा-बसाकर मिटाता है उस समय यह, कौन बता सकता है ? इसलिए ध्यान के साधक की सर्वप्रथम आवश्यकता है यह कि वह जन संसर्ग से दूर किसी ऐसे एकान्त व निर्जन स्थान में अभ्यास करे जहाँ न हो कोई बात करने वाला और न हो कुछ उसके मन में वासना जागृत करने वाला, साथ-साथ मौन रहने का भी अभ्यास करे । केवल वचन मौन नहीं मनोमौन भी, क्योंकि मन तथा वचन का परस्पर में इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि एक को दूसरे से विलग किया जाना सम्भव नहीं । मानसिक विकल्प सदा शब्दविद्ध होते हैं और शब्द सदा विकल्पविद्ध। शाब्दिक जल्प के बिना विकल्प और विकल्प के बिना शाब्दिक जल्प सम्भव नह एकान्तवास तथा मौन का यह अर्थ नहीं कि घरबार छोड़कर वन में जा बैठना तथा किसी आगन्तुक के साथ बात न करना, प्रत्युत यह है कि शारीरिक संसर्गों तथा वाचिक संसों से दूर मानसिक लोक में प्रवेश करे और २४ घण्टे अपने मन को प्रेमपूर्वक समझा-समझाकर उसे विकल्पों से हटाने का तथा निज स्वरूप में लीन करने का प्रयल करे, अन्यथा उसका सकल वनवास तथा मौन दम्भाचार से अधिक कुछ भी महत्त्व धारण नहीं कर सकेगा।
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