SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१. ध्यान २७१ ४. धर्मध्यान यह है ध्यान की सबसे बड़ी कठिनाई जिसको जीत सकते हैं, केवल मौनावलम्बी, वनविहारी सन्यासी जन या साधु । परन्तु भाई ! तू निराश मत हो, भले ही मौन तथा वनवास करने में असमर्थ तू अपनी इस गृहस्थ-दशा में उन योगियों जैसा निर्विकल्प ध्यान न कर पाये परन्त कछ ऐसे कार्य अवश्य कर सकता है जो कि ध्यान में अत्य हैं। इतनी बात अवश्य है कि इसके लिये काफी परिश्रम करना पड़ेगा तुझे, शारीरिक परिश्रम नहीं मानसिक परिश्रम । परन्तु क्या परवाह है, महान पदार्थ की प्राप्ति के लिये सभी तो महान परिश्रम करते हैं । इच्छा-ज्वाला में घी डालने वाले विषयों से जहाँ तक सम्भव हो अपने २४ घण्टे के जीवन में बचने का प्रयास करता रहे, और कुछ-कुछ समय के लिये प्रतिदिन मौन-युक्त एकान्तवास का अभ्यास भी। २. ध्यान-विधि-और यह है ध्यान की विधि-चले जाइये कुछ देर के लिये किसी निर्जन तथा शान्त स्थान में, वन में, उद्यान में, मन्दिर में, अथवा किसी उपाश्रय में । बैठ जाइये किसी वृक्ष के नीचे या प्रभु के समक्ष अथवा अपने ही घर के किसी एकान्त व शान्त कोने में, जहाँ न सुनाई दे बच्चों की कलकलाहट और न हो मच्छर, मक्खी आदि की कोई बाधा । बैठ जाइये पृथ्वी पर या कुशासन पर, पझासन लगाकर अथवा अर्ध-पद्मासन लगाकर अथवा अन्य कोई भी आसन जिसका तुम्हें अभ्यास हो, जो तुम्हें सुखद प्रतीत होता हो, और कुछ देर तक जिसे आपको बदलने की आवश्यकता न पड़े। कमर और गर्दन को सीधी रखिए, और नेत्र अतथा श्रोत्र इन दोनों इन्द्रियों को बाहर से हटाकर भीतर की ओर उन्मुख कीजिये। कुछ ऐसी मुद्रा बनाइए कि मानो नेत्र देख रहे हैं अपने मन में होने वाला कोई अनोखा दृश्य और सुन रहे हैं वहाँ ही होने वाला कोई संगीत । न बाहर का कुछ दिखाई देता है और न बाहर का कुछ सुनाई देता है । इसी को कहते हैं नासाग्र दृष्टि । भले ही योगियों की भाँति ध्यान परिपक्व हो जाने पर इस प्रकार के किसी विधि-विधान का आपके लिये कोई मूल्य न रह जाए, चित्त-लय हो जाने के कारण भले ही तब आपके लिये राजा का रनवास भी वनवास और संस्तर पर लेटना भी पद्मासन बन जाय, भले ही तब चलते फिरते अथवा किसी से बातें करते भी सदा आपके हृदय में ध्यान की अविच्छिन्न धारा बहती रहे, परन्तु वर्तमान की इस निम्न अवस्था में बहुत सहायक पड़ेंगे ये सर्व विधान आपके लिये। इतनी सावधानी रखनी आवश्यक है कि कहीं ऊँघ या निद्रा ने तो नहीं धर दबाया है आपकों अथवा प्रमादवश गर्दन तथा कमर ढीली पड़कर नीचे को तो नहीं झुक गयी है आपकी? यह जान लेना आवश्यक है कि उपर्युक्त परिपक्व भूमि को प्राप्त महान् योगियों की नकल करने से तीन काल आपके प्रयोजन की सिद्धि होने वाली नहीं है । शान्ति का पथिक होने के कारण आपका कर्तव्य है कि जो कुछ भी करें अपनी भूमिका को पहचान का करें । अग्रिम विस्तार में अनेकों प्रकार के जाप्य, भावनायें, चिन्तवन आदि का कथन किया जाने वाला है, जिनमें से कुछ निम्न भूमि वालों के लिये हैं और कुछ उन्नत भूमिवालों के लिए। ३. आर्त्तरौद्र ध्यान-ध्यान नाम है चित्त का किसी एक विषय में अटके रहना, किसी भी विषय को लेकर विचार-मग्न बने रहना । और यह स्वभाव है इसका, हर समय कुछ न कुछ ध्यान किया ही करता है यह । भले विषय बदलते रहें परन्तु ध्यान एक क्षण को भी नहीं छूटता। कभी इष्ट विषयों की प्राप्ति, अभिवृद्धि तथा संरक्षण का, कभी अनिष्ट विषयों के परिहार का, कभी वेदना का और कभी अग्रिम भव-भवान्तरों में प्राप्त होने वाले इष्टानिष्ट संयोगों का। इतना ही नहीं, इस स्वार्थ-चिन्ता की रौ में बहता हुआ यह इस बात की भी परवाह नहीं करता कि जो-जो भी उपाय वह अपने इन मनोरथों की पूर्ति के अर्थ विचार रहा है उनसे कितने प्राणियों का निर्दय उत्पीड़न, शोषण अथवा घातन हो जाना अनिवार्य है। इसे क्या पड़ी किसी के दुःख सुख की? कोई रोये या हँसे, मेरे स्वार्थ पूरे हो जायें, केवल इतनी मात्र चिन्ता है इसे । बिना किसी बौद्धिक प्रयल के प्रतिक्षण संस्कारवश स्वत: चलने वाली ये सर्व चिन्तनायें हैं, अधोगामी ध्यान, आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यान, जिनका शान्तिपथ में कोई स्थान नहीं । विपरीत इसके उसके विरोध हैं ये, और इसलिये साधक का प्रयत्न रहता है सदा यह कि वह इनसे हटाकर चित्त को किन्हीं ऐसी चिन्तवनाओं में अटकाये जो कि शान्ति तथा समता की सिद्धि में सहायक हों। ४. धर्मध्यान-उसको इष्ट है 'धर्मध्यान' जिसका विस्तार आगे किया जाने वाला है। यद्यपि देव-पजा, गुरु-उपासना और स्वाध्याय जिनका कथन पहले किया जा चुका है उक्त प्रयोजन में सहायक होने के कारण धर्मध्यान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy