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४०. उत्तम-तप
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३. षड्विध आभ्यन्तर तप
मारकर मैं आ सकूँ इस विकल्प-सागर के तट पर, जहाँ खड़ी है शान्ति तथा समता-रानी मेरी प्रतीक्षा में; और क्या मेरा यह प्रयत्न कृत्रिम होगा? सहज रूप से ही प्रकट हो जाएगा वह पुरुषार्थ मुझ में । इस प्रकार शान्ति व अशान्ति के, समता व विषमता के झूले में झूलते हुए मेरा प्रयत्न बराबर रहेगा यह कि किसी प्रकार में वहाँ से च्युत न होने पाऊँ, और कदाचित् दुर्भाग्यवश हो जाऊँ तो पूरा बल लगाकर प्रयत्न करूँ पुन: उसी स्थिति को प्राप्त करने का । यह है अपनी पारमार्थिक सेवा और यही है 'वैयावृत्त्य' नाम वाला तृतीय आभ्यन्तर तप ।
यह तो है पारमार्थिक या निश्चय वैयावृत्त्य, परन्तु इसके साथ-साथ क्या मैं शान्ति-नगर के प्रति यात्रा करने वाले अपने अन्यान्य साथियों की भी सेवा या वैयावृत्त्य में नहीं जुट जाऊँगा उस समय, जबकि वे भी मेरी ही भाँति च्युत कर दिये जायेंगे अपनी स्थिति से, संस्कारों के द्वारा? अपने तन, मन, धन तथा जीवन किसी की भी चिन्ता नहीं होगी मुझे उस समय, बस होगी एक चिन्ता यह कि किसी प्रकार भी ये पुन: प्राप्त कर सकें अपनी पूर्व-स्थिति को, उस सोपान को जिस पर से कि ढकेल कर नीचे फेंक दिया गया है इन्हें विकल्प-सागर में । सदगुरु देव की तो बात नहीं, उनके प्रति तो कर ही दूँगा मैं दिन रात एक, उनके अतिरिक्त अपने सहयात्रियों के प्रति भी कोई कसर उठा नहीं रलूँगा मैं, उसी प्रकार जिस प्रकार कि स्त्री-पुत्र आदि में से किसी के कदाचित् रोगग्रस्त हो जाने पर आप सब कुछ व्यापार धन्धा छोड़कर जुट जाते हैं उनकी सेवा में।
इतना ही क्यों, क्या अन्य साधारण व्यक्तियों के प्रति भी मैं अपने इस महाकर्त्तव्य को भूल जाऊँगा? काई भी क्यों न हों वे व्यक्ति-मनष्य हों या हों पश पक्षी. कौटम्बिकजन अथवा प्रेमीजन हों या हों राजमार्ग पर चले जाने वाले अपरिचित व्यक्ति, सधन हों या निर्धन, सबल हों या निर्बल, ज्ञानी हों या अज्ञानी, गृहस्थ हों या संन्यासी, खाते-कमाते हों या हों भिखारी अथवा दुःखित भु:खित, सबकी सेवा करूँगा मैं समान रूप से, उनके दुःख अथवा संकट के अवसर पर । न केवल तन से प्रत्युत धन से, वचन से तथा मन से भी । शरीर द्वारा उनकी टहल सेवा करके अथवा उनके स्थान पर स्वयं उनके गृहस्थोचित कर्तव्यों की पूर्ति करके, उनके खेत में काम करके; धन द्वारा उनकी आर्थिक सहायता करके, वचन द्वारा उनको सान्त्वना देकर, उनको धीर बँधाकर और मन द्वारा उनके सुख व शान्ति की कामना करते हुए प्रभु से उनके लिए प्रार्थना करके। और क्या कृत्रिम होगा मेरा यह प्रयत्न, कुछ भार-सा समझकर ? नहीं सहज होगा, स्वाभाविक होगा, हृदय-युक्त होगा। क्यों न हो, मैं उसे अपने से भिन्न देखता ही कब हूँ ? मुझे तो दीखता है चेतन, बिल्कुल वैसा ही जैसाकि मैं स्वयं हूँ, शान्ति तथा समता का आवास। यह है बाहर का व्यवहार-वैयावृत्त्य अर्थात् निष्काम सेवा । यदि मैं ऐसा न करूँ अथवा भार समझकर कृत्रिमता से करूँ। तो इसका अर्थ क्या होगा? यही न कि मैं चेतन की बात ही करना सीखा हूँ, उसके दर्शन अभी मुझे नहीं हुए हैं। मैं वास्तव में जानता ही नहीं कि क्या-क्या अरमान छिपाये बैठा है वह अपने हृदय में । 'विनय' की भांति यहाँ भी समझ लेना चाहिये कि बाह्य के इस व्यवहार वैयावृत्त्य-तप को उल्लेख यहाँ साधु तथा गृहस्थ दोनों को लक्ष्य में रखकर किया जा रहा है।
(४) प्रात: मन्दिर में बैठकर शास्त्र में जो पढ़ा था अथवा प्रवचन में जो सना था, तत्सम्बन्धी कुछ ऐसी बातें जो विशद रीति से समझ में नहीं आ पाई थीं, आपको खाली समयों में विचारनी चाहिये कि इनका यथार्थ अर्थ क्या हो सकता है और उस वाक्य व शब्द का आपकी शान्ति की सिद्ध के साथ क्या सम्बन्ध है ? यदि कुछ नहीं तो वास्तव में अर्थ ही ठीक नहीं हुआ। शास्त्र में लिखा एक-एक शब्द शान्ति का द्योतक है, उसको ठीक रीति से समझना चाहिये, नहीं तो वह इस मार्ग में अनुपयोगी ही रहेगा। शास्त्र तो स्वयं बोलकर बता नहीं सकता, उसमें लिखे शब्द अवश्य संकेत कर रहे हैं किसी ऐसी दिशा को जिधर आपकी शान्ति का निवास है। उस दिशा का अनमान लगाना तथा उस अनुमान की परीक्षा अनुभव के आधारपर करना आपका काम है। साथ-साथ उन बातों को विचारना भी जो कि विशद रूप से आपकी समझ में आ गई थीं, और बहुमान-पूर्वक तथा हृदय की लगनपूर्वक । इनके अतिरिक्त किसी जिज्ञासु को उस समझे हुए सिद्धान्त के अर्थ का ठीक रीति से कल्याण-भावना पूर्वक उपदेश देना भी। यह प्रक्रिया प्रतिकूल वातावरण में रहकर आश्रय रहित की जा रही है, और इसीलिए कहलाता है यह स्वाध्याय नाम का चौथा आभ्यन्तर-तप । यथार्थ में स्वाध्यायतप तो योगियों को ही होता है जो कि जीवन में प्रतिक्षण समता के वेदन रूप
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