________________
४०. उत्तम-तप
२६७
३. षड्विध आभ्यन्तर तप
पथिक को डरते-डरते पुकार उठता है कि प्रभो ? तनिक ठहर जाओ, मेरा भी हाथ पकड़कर तनिक सहारा दे दो; पर उस बेचारे को क्या पता कि उस आगे वाले की भी ठीक यही दशा है । वह अपने आगे वाले को अपना हाथ पकड़ने के लिए प्रार्थना कर रहा है और वह तीसरा भी अपने आगे वाले चौथे को । प्रत्येक की पुकार में उसका अपना स्वार्थ छिपा है जिसके कारण कि उसको यह भी विचारने का अवकाश नहीं कि यदि उसकी प्रार्थना को सुनकर यह आगे वाला रुक जाए, या उसका हाथ पकड़ने के लिए पीछे मुड़कर देखने लगे तो कितना बड़ा अनिष्ट हो जायेगा उसका। इससे आगे वाला सम्भवत: इतनी ही देर में इतना आगे निकल जाये कि फिर वह दृष्टि में भी न आये, अथवा पीछे को देखते हए और आगे चलते हए उसको कोई ऐसी ठोकर लग जाए कि नीचे गिरकर उसका सर ही फट जाए।
पीछे व आगे वाले दोनों पथिकों को भी अपनी-अपनी क्रिया का फल मिलता है, पीछे वाले की क्रिया या पुकार का फल आगे-वाले को नहीं मिल सकता। अत: इसकी पुकार स्वयं इसके लिए तो अत्यन्त हितकर है, पर आगे वाले के लिए वह अहितरूप बननी सम्भव है । वह आगे वाला अपनी अल्प शक्ति को देखते हुए यदि अपनी रक्षा के लिए स्वयं पीछे मुड़कर न देखे तो उसे कोई बाधा नहीं पड़ सकती, परन्तु यदि कदाचित् किसी भी आवेश में पीछे मुड़कर देख ले तो प्रभ हो जाने कि क्या हो? उसका सब किया कराया मिट्टी में मिल जाए। ठीक है कि आगे जाकर शक्ति बढ़ जाने पर उसमें इतनी दृढ़ता आ जाती है कि बड़े से बड़े प्रलोभन की ओर भी वह दृष्टि उठाकर नहीं देखता । परन्तु निम्न अवस्था में उसे अवश्य सावधानी रखकर चलना होता है। पीछे वाले का कर्तव्य है कि अपने लिए न सही, पर आगे-वाले के हित के लिए वह आवश्यकता से अधिक पुकार-पुकार कर उसे पीछे मुड़ने के लिए बाध्य करने का प्रयत्न न करे।
यह तो केवल दृष्टान्त हआ। इसका तात्पर्य है ख्याति की भावनाओं का प्रशमन करना । उत्कृष्ट बल को प्राप्त साक्षात् गुरुओं के अभाव के कारण स्वभावत: शान्ति के जिज्ञासु भव्य जनों का बहुमान, दृष्टि में आने वाले उन तुच्छ जीवों की ओर बह निकलता है, जिनके जीवन में गुरुप्रसाद से किंचित्मात्र चिह्न शान्ति या शुचिता के उत्पन्न हो गए हैं। उस बहुमान के कारण उस तुच्छ जीव के प्रति नमस्कार आदि कुछ ऐसी क्रियायें करने लगते हैं जो अधिक शक्तिशाली व ऊँची भूमिका में स्थित जीवों के ही योग्य थीं। यद्यपि उनका यह बहुमान कृत्रिम नहीं और न ही किसी की प्रेरणा से उत्पन्न हुआ है, स्वयं उनके लिए यह हितकारी भी है, परन्तु उन्हें क्या पता कि इन क्रियाओं से उस छोटे से जीव का कितना बड़ा अहित हो रहा है, लोकेषणा के अंकुर का सिञ्चन हो रहा है ? यद्यपि किसी के ऊपर यह नियम लादा नहीं जा सकता, कि देखो जी अमुक व्यक्ति के प्रति बहुमान उत्पत्र न करना या नमस्कारादि न करना, परन्तु स्वपर के उपकारार्थ उनसे यथायोग्य करने की प्रार्थना अवश्य की जा सकती है, और यह बात उसे समझाई भी जा सकती है कि भले ही तेरा बहुमान व विनय सच्चा है, तेरे लिए हितकारी है, पर इस आगे वाले के लिए कथञ्चित् अहितकारी है। इसकी शक्ति अभी इतनी नहीं है कि इन क्रियाओं को देखकर उसमें लोकेषणा उत्पन्न न हो, अत: अपने लिए न सही पर इस आगे वाले के लिए तू इन क्रियाओं में कुछ कमी कर दे, इतनी कि तेरा भी काम चल जाए और इसके काम में भी बाधा न पड़े। इसलिए गुरुदेवों ने नमस्कारादि क्रियाओं-सम्बन्धी कुछ नियम बना दिए हैं कि साधु के प्रति साष्टांग नमस्कार के द्वारा, उत्कृष्ट श्रावक के प्रति चरणस्पर्श के द्वारा, तथा जघन्य व मध्यम श्रावक के प्रति यथायोग्य अंजलिकरण के द्वारा ही अपने-अपने बहुमान का प्रदर्शन करना योग्य है । ऊँचे के योग्य नमस्कार नीचे के प्रति करना योग्य नहीं।
(३) इन महान उपलब्धियों के प्रति इस प्रकार का हार्दिक बहुमान अथवा विनय जागृत हो जाने पर आप ही सोचिए कि क्या होगी मेरी दशा उस समय, जबकि कदाचित् दुर्भाग्यवश संस्कार के द्वारा प्रेरित हुआ मैं च्युत हो जाऊँगा अपनी
थति से अर्थात् शान्ति तथा समता से, और ढकेल दिया जाऊँगा विकल्प सागर में ? बिल्कुल उस चकोर सरीखी होगी उस समय मेरी दशा जो बड़े-बड़े अरमान हृदय में लिए, बड़े उत्साह के साथ उड़ानें भरता उड़ा जा रहा है आकाश मे, ऊपर ही ऊपर चन्द्रमा की ओर और कदाचित् दुर्भागयवश घायल होकर किसी व्याध के निर्दय वाण से, आ पड़े पृथ्वी पर तड़फता हुआ, फड़फड़ाता हुआ। क्या उस समय मैं भीतर ही भीतर यह प्रयत्न न करूँगा कि जिस-किस प्रकार हाथ पाँव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org