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४०. उत्तम-तप
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३. षडविध आध्यन्तर तप
बोले? तुझे अगर कुछ सीखना है तो विजेता बनकर नहीं दास बनकर सीखना होगा। जाओ ! उसके चरणों में बैठकर विनयपूर्वक विनती करो, उसे गुरु स्वीकार करो।" लक्ष्मण की आँखें खुल गईं, गया और अब की बार निराश नहीं लौटना पड़ा उसे।
इस प्रकार चोर से कहा राजा ने कि तुझे सूली पर चढ़ाया जाने वाला है, परन्तु सूली पर चढ़ने से पहले तू अपनी विद्या मुझे दे दे । राजा हूँ न मैं, सभी महान् वस्तुओं का अधिकारी? बता दी चोर ने सारी विद्या पर राजा न सीख पाया कक्का भी । चोर ने कहा कि राजा हैं आप इसमें सन्देह नहीं, सभी भौतिक धन के स्वामी हैं आप इसमें सन्देह नहीं, परन्तु राजा या अधिकारी बनकर विद्या नहीं सीखी जाती भगवन् ! यह है आध्यात्मिक-धन जिसका अधिकारी राजा नहीं शिष्य होता है, विनम्र शिष्य । खुल गई राजा की आँखें छोड़कर मुकुट व सिंहासन उतर आया नीचे, अति विनय से बैठाया चोर को अपने स्थान पर । अब वह चोर नहीं था उसके लिये, था उसका विद्या-गुरु, उसका उपास्य । अत्यन्त भक्ति तथा बहुमान से प्रक्षालन किया उसके चरणों का और मस्तक पर चढ़ा लिया वह चरणोदक । देर नहीं लगी अब उस राजा को विद्या सीखते हुए, राजा को नहीं शिष्य को, चोर के विनम्र शिष्य को । भील ने भी सीखी थी धनुर्विद्या गुरु-द्रोण की प्रतिमा से, प्रतिमा से नहीं साक्षात् गुरु से, शिष्य बनकर, सच्चा शिष्य बनकर, अर्जुन से भी अधिक विनम्र; और इसी लिए मात कर दिया अर्जुन को भी उसने, शर्मा दिया अर्जुन की भी विद्या को उसने । यह सब है 'विनय' का माहात्म्य सौभाग्य है मेरा कि मुझे प्राप्त हुआ है यह महारत्ल-चिन्तामणि, गुरुकृपा से, गुरुकृपा प्राप्त करने की कुञ्जी । गुरु
ए तो फिर रह क्या गया? वे ही हैं सब कुछ, भगवान से भी महान् । परन्तु क्या यह महारत्न अकस्मात् उपलब्ध हो गया था मुझे ? नहीं दूर से देखी थी इसकी कुछ आभा मैंने उस समय जब कि बच्चा सा था मैं । नित्य प्राय: नमस्कार करता था झुककर, पहले माता के चरणों में और फिर पिता के चरणों में । वे ही तो थे मेरे भगवान उस समय, मेरे जीवन, मेरे सर्वस्व 1 उनके इशारे पर चलता था मैं, उनकी एक-एक आज्ञा का पालन करता था मैं, उनके खड़े होने पर खड़ा हो जाता था मैं, उनके चलने पर उनके पीछे-पीछे चलता था मैं, उनके पधारने पर उन्हें आसन देता था मैं। इसी प्रकार विद्यार्जन के क्षेत्र में अपने गुरुजनों के प्रति, और सामाजिक क्षेत्र में वृद्धजनों के, गुणीजनों के तथा सुप्रतिष्ठित-जनों के प्रति भी। उस अभ्यास का ही तो प्रताप है यह कि कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ आज मैं गुरुचरण-शरण को प्राप्त करके । अब मुझे क्या चिन्ता । कोई संस्कार पर नहीं मार सकता यहाँ। किसका साहस कि गुरुदेव के समक्ष जाए ?
इनकी ही कृपा से प्राप्त है मुझे यह शान्ति तथा समता, महानतम उपलब्धि, जगत की बड़े से बड़ी विभूति भी रखी नहीं जा सकती जिसके पासंग में । कैसे गाऊँ मैं इसकी महिमा, कैसे करूँ मैं इसका स्तवन, इस महानतम उपलब्धि का, शब्द हैं ही कहाँ मेरे पास, और हों भी तो उनमें शक्ति ही कहाँ है ऐसा करने की? जड़ शब्दों में हार्दिकता कहाँ ? मैं स्वयं जानता हूँ इसकी महिमा, स्वयं ही रसपान करता हूँ इसका और स्वयं ही लेट जाता हूँ इसके चरणों में । इस प्रकार अपनी महान आध्यात्मिक उपलब्धियों के प्रति का बहुमान है पारमार्थिक विनय, निश्चय विनय; और उनके निमित्तभूत देव के प्रति का, सद्गुरु के प्रति का, सरस्वती माँ या शास्त्र के प्रति का, माता के प्रति का, पिता के प्रति का, विद्यागुरु के प्रति का, वृद्धजनों के प्रति का, गुणीजनों के प्रति का तथा सुप्रतिष्ठित जनों के प्रति का बहुमान है व्यवहारिक विनय कारण में कार्यरूप औपचारिक विनय, कुछ साधु के योग्य और कुछ गृहस्थ के योग्य । नमन, वन्दन, स्तवन, पाद-प्रक्षालन, अर्घावतारण आदिरूप सभी क्रियायें इसमें सम्मिलित हैं । परन्तु व्यक्ति की भूमिकानुसार इन सब क्रियायों में अन्तर होना स्वाभाविक है।
शान्ति के इस सरल मार्ग पर बराबर कुछ पथिक चले जा रहे हैं, कुछ तेजी से और कुछ धीमे, कुछ आगे और कुछ पीछे । बहुत-कुछ आगे निकल चुके हैं, मानो क्षितिज को भी पार कर गये हैं, जिन पर आज मेरी दृष्टि भी नहीं पड़ती; और कुछ मेरे निकट में ही थोड़ा आगे बढ़े चले जा रहे हैं। अपरिचित मार्ग में चलने वाले इन पथिकों को स्वाभाविक रूप में ही अपने से आगे-वाले के प्रति कछ बहमान सा जागत हो जाता है जो कत्रिम नहीं होता। किसी की प्रेरणा से नहीं बल्कि स्वयं आगे बढ़ने की जिज्ञासा में-से अंकरित हए इस बहमानवश, वह अपने से आगे वाले इस
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