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________________ ७. जीव-तत्त्व ४१ ४. अन्तस्तत्त्व होती दिखाई दे रही है, जहाँ सुख-दुख का वेदन हो रहा है, जहाँ विचारनाओं का काम किया जा रहा है । नेत्र इन्द्रिय से देखने का प्रयत्न मत कर भाई ! इन्हें बन्द करके देख कुछ अपने ही अन्दर डुबकी लगाकर, अपने से ही प्रश्न करके उत्तर ले। मैं की ध्वनि स्वरूप अन्तरंग में प्रतीत होने वाले हे परमतत्त्व, तू कौन है ? 'मुझे शान्ति चाहिए' 'मुझे शान्ति चाहिए' हर समय इस प्रकार की टेर लगाने वाले, तू कौन है। अरे ! यह क्या? 'तू' किसे कह रहा है? यह स्वयं मैं ही तो हूँ । अन्तरंग में प्रकाशमान, स्वानुभव-गोचर, अमूर्तीक, इन्द्रियातीत, चैतन्य-विलासरूप, शाश्वत, परब्रह्म, यह 'तू' मैं ही तो हूं। क्योंकि, यह देख- प्रश्न करने वाला कौन ? 'मैं'। प्रश्न का उत्तर देने वाला कौन है ? 'मैं' । सर्वत्र 'मैं' ही 'मैं' हुआ। 'तू' को कहाँ अवकाश रहा? कितना बड़ा आश्चर्य, बगल में छोरा और नगर में ढंढोरा । “दिल के आइने में में है तस्वीरे यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।' व्यर्थ ही इधर-उधर दूर-दूर भटकता रहा, ठोकरें खाता रहा, कष्ट सहता रहा, पर जिसे ढूंढता रहा, वह स्वयं 'मैं' ही तो था। चार ब्राह्मण पुत्र बनारस से पढ़कर आये। मार्ग में नदी पड़ी। चारों पार हो गये। उस पार पहुँचने पर गिनने लगे। चारों ने गिना पर संख्या तीन ही थी। एक कौन सा डूबा? क्या मैं डूबा? नहीं मैं तो हूं। क्या ये डूबे? नहीं ये तो हैं । पर एक, दो, तीन, चौथा कहाँ गया? बस वही हालत थी मेरी अब तक । निगोद से लेकर मनुष्य तक सारे शरीरों को गिन डाला, पर अपने को गिनना सदा ही भूलता रहा । आश्चर्य की बात, अपनी मूर्खता न कहूँ, तो क्या कहूँ इसे? चला हूँ शान्ति लेने, पर यह पता नहीं कि शान्ति भोगेगा कौन? चला हूँ लडडू खाने, पर यह पता नहीं कि इसे उठाकर मुँह में देने वाला कौन? समझ चेतन ! समझ, तुझे इस 'मैं' का लक्षण दर्शाता हूँ। जिसमें जानने का कार्य हो रहा है, जिसमें कुछ चिन्तायें उत्पन्न हो रही हैं, जिसमें सुख-दुख महसूस किया जा रहा है, जिसमें विचारने का काम चल रहा है। वह एक चेतन तत्त्व है, ज्ञानात्मक तत्त्व, इन्द्रियातीत-अमूर्तीक तत्त्व । निगोद आदिक रूपों में एक वही तो प्रकाशमान हो रहा है, वही तो ओत-प्रोत हो रहा है। वे सर्व इसी की तो कोई अवस्थायें हैं, जिनका निर्माण अपनी कल्पनाओं के आधार पर स्वयं इसने किया है, जिसके होने से ही ये सब चेतन हैं और जिसके न होने से जड़। इसलिये ईश्वर, परब्रह्म व जगत का स्रष्टा यही तो है। परमात्मा व प्रभु इसी का तो नाम है। अचिन्त्य है इसकी महिमा । उसी परम-तत्त्व का नाम 'मैं' है। इसी को आगमकार जीवात्मा कहते हैं, कोई इसे 'सोल' कहते हैं, कोई इसे 'रूह' कहते हैं । पर इन सब नामों की अपेक्षा इसका नाम 'मैं' लिया जाना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि 'मैं' शब्द को सुनकर साक्षात् रूप से मेरा विकल्प उस परम चेतन तत्त्व की ओर जाता है, और जीव या आत्मा सुनकर मैं इसे कहीं अन्यत्र खोजने लगता हूँ। देखिये, क्या अनेकों बार मेरे में यह विकल्प उत्पन्न होता नहीं देखा जाता कि एक दिन मैं भी मरूंगा, लोग मुझे अर्थी पर लादकर ले जायेंगे और जला देंगे, और यह आत्मा इसमें से निकलकर कहीं अन्यत्र जाकर जन्म धारण कर लेगा? मानो कि वह आत्मा मुझसे पृथक् कोई दूसरा पदार्थ हो । इसलिये इस सब लम्बे वक्तव्य में जीव शब्द के स्थान पर 'मैं' शब्द का प्रयोग करूंगा। बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि क्राइस्ट ने 'बाईबिल' में और वेद-व्यास जी ने 'गीता' में किया है। जितना छोटा शब्द उतना ही महान् तत्त्व । एक अक्षर वाले इस छोटे से शब्द का वाच्य यह महातत्त्व यद्यपि साधारण दृष्टि से देखने पर दीखता है केवल देह प्रमाण, वायु की भाँति संकोच-विस्तार द्वारा यथालब्ध छोटे या बड़े शरीर में समा जाने वाला; तदपि तात्त्विक दृष्टि से देखने पर यह है विभु, सर्वव्यापक, सर्वगत । “आदाणाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं। णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।" आत्मतत्व वास्तव में ज्ञानप्रमाण है, अर्थात् वह शरीरादि की भाँति उठाई धरी जाने वाली वस्तु नहीं है, प्रत्युत है ज्ञानमात्र । ज्ञान अर्थात् चिज्ज्योति ही उसका स्वरूप है । इसीलिये ज्ञानीजन उसे 'भा' 'ज्ञ' 'चिन्मात्र' कहते हैं । और यह ज्ञान या चिज्ज्योति है ज्ञेयप्रमाण अर्थात् दर्पण की भाँति जो कुछ भी इसके समक्ष आये उस सबको अपने भीतर प्रतिबिम्बित कर लेने वाला, उस सबको ग्रस जाने वाला । अब प्रश्न होता है यह कि 'ज्ञेय' क्या? जो जाना जाने योग्य हो वही ज्ञेय । तीन लोक में कौन सी ऐसी वस्तु है जो जानी जाने योग्य न हो? सभी इस महिमावन्त ज्ञान के प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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