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७. जीव-तत्त्व
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४. अन्तस्तत्व
अपना स्वरूप अर्पण कर रहे हैं, लोक तथा तद्गत वस्तुयें ही नहीं, उसके बाहर स्थित आकाश का वह अनन्त भाग भी जहाँ कि आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु नहीं, और इसलिये 'अलोक' कहलाता है जो । लोक तथा अलोक सभी ज्ञेय हैं, सभी इस महिम्न की उपासना कर रहे हैं, इसके चरणों में अपनी श्रद्धांजलियाँ अर्पण कर रहे हैं। इसलिये सर्वगत है यह । जहाँ जाना चाहे वहाँ चला जाये, जिसे जानना चाहे उसे ही जान ले । चला जाने का यह अर्थ नहीं कि शरीर की भाँति इसे पांव से चलकर ज्ञेय के पास जाना पड़े, प्रत्युत यह है कि ज्ञेय स्वयं चलकर इसके पास आ जाते हैं, जिस प्रकार कि पदार्थ स्वयं आकर दर्पण में प्रतिबिम्बत हो जाते हैं। और इसलिये आत्मा या जीव-तत्त्व है वास्तव में विभु, सर्वव्यापक, सर्वगत।
बात कुछ नई सी लगती है, क्योंकि आज तक यही सुनते चले आये हैं कि आत्मा तो देहप्रमाण होता है, और अपनी संकोच-विस्तार शक्ति के द्वारा यथा-प्राप्त छोटे या बड़े जिस किस भी शरीर में समाकर रह जाता है । ठीक है भाई ! तूने भी गलत नहीं सुना है दृष्टिभेद है वह बात ज्ञानियों ने किसी और दृष्टि से कही है और यह बात किसी और दृष्टि से कही जा रही है । वहाँ है इन्द्रिय आदि दश प्राणों की अपेक्षा और यहाँ है उन दश प्राणों के भी प्राण किसी महाप्राण की अपेक्षा, जिसके प्राण से अनुप्राणित हैं ये सब, जिसकी दीप्ति से दीप्तिमन्त है यह लोक और जिसके आलोक से आलोकित है असीम अलोक । दस प्राणों से जो जीता है, जीता था तथा जीवेगा, वह कहलाता है जीव परन्त इस चेतन प्राण से, इस लोकालोक व्यापी ज्ञान प्राण से जो जीता है, जीता था और जीवेगा, उसे क्या कहें? समस्त स्थूल तथा सूक्ष्म ज्ञेयों को अपने एक छोटे से कोने में समेट लेने वाले इस महातत्त्व को क्या कहें? कौन कर सकता है बखान उसका शब्दों में ? केवल स्वानुभव गोचर है वह, केवल रसास्वादनरूप है वह । इसीलिये ज्ञानीजन कहते हैं उसे सच्चिदानन्द भगवान आत्मा। सत्ताधारी मौलिक पदार्थ होने के कारण 'सत्', चिन्मात्र होने के कारण 'चित्', और आनन्दानुभूति-रूप से परिचय में आने के कारण 'आनन्द' । ज्ञान, दर्शन, वैराग्य, समता, सुख, शान्ति, वीर्य आदि अनन्त ऐश्वर्य का नित्य उपभोग करते रहने के कारण भगवान है वह, और स्वयं मेरा निजस्वरूप होने के कारण 'आत्मा' ।
" उत्तम गुणाणधाम, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं ।
तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ।।" भले ही साधारण-जनों को समझाने के लिये 'जीव' नाम से कहा गया हो यह, परन्तु वास्तव में देखा जाय तो सर्व गणों का धाम यह महातत्त्व सर्व द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सर्व तत्त्वों में उत्तम तत्त्व है।
५. शान्ति मेरा स्वभाव-गुरुओं के प्रसाद से सच्चिदानन्द भगवान के अथवा निज परम चेतन तत्त्व के दर्शन कर लेने के पश्चात् इससे पहले कि मैं शान्ति में बाधक अन्य पदार्थों के स्वरूप का वर्णन करूं, यह जानना आवश्यक प्रतीत होता है कि यह शान्ति क्या है और कहां रहती है ? क्योंकि शान्ति का निवास जाने बिना, 'मैं इसकी रक्षा कहां जाकर करूं' यह शंका बनी रहेगी। पूर्वकथित सात बातों में इस प्रश्न का अन्तर्भाव पहली बात में अर्थात् 'मैं क्या हूँ, वाले प्रश्न में हो जाता है क्योंकि 'मैं' का लक्षण करते हुये उस लक्षण के अंग स्वरूप एक बात यह भी कही गई है कि जिसमें से शान्ति की इच्छा उत्पन्न हो रही है. वही 'मैं' हैं । शान्ति की यह इच्छा ही शान्ति की ओर मेरे झकाव को सिद्ध करती है। स्वतंत्र रूप में जिस ओर वस्तु का झुकाव होता है उसे स्वभाव कहते हैं, जैसे कि अग्नि के द्वारा गरम किया गया जल अग्नि के सम्पर्क से जुदा होकर स्वतन्त्र रूप से शीतलता की ओर ही झुकता है, और यदि देर तक पुन: अग्नि का संयोग प्राप्त न होने पावे तो वह स्वयं शीतल हो जाता है । इसलिये जल का स्वभाव उष्ण न होकर शीतल है । इसी प्रकार अगले प्रकरणों में बताये जाने वाले अन्य पदार्थों से सम्पर्क दूर होने पर मैं स्वतन्त्र रूप से शान्ति की ओर ही झुकता हूँ। विरोध दूर हो जाने पर झुकाव शान्त होने के प्रति ही होता है । अत: मेरा स्वभाव शान्ति है, भले अन्य के सम्पर्क में आकर अशान्त हो रहा हूँ। इसलिये 'शान्ति क्या' है और शान्ति कहाँ है इन दोनों प्रश्नों का अन्तर्भाव, 'मैं क्या हूँ' इस पहले प्रश्न में हो जाता है । अत: इस स्थान पर इसकी व्याख्या कर देना योग्य है । 'शान्ति क्या है ?' इसके सम्बन्ध में अधिकार न० ३ में साधारणत: चार प्रकार की शान्ति का प्रदर्शन करते हुये काफी प्रकाश डाला जा चुका है। अब 'शान्ति कहाँ है' यह बात चलती है।
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